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शुक्रवार, 4 मई 2012

गजल

किछु कुबेर के चक्रव्यूह मे, कानूनन मजबूर छी
रही कृषक आ खेत छिनाओल, तहिये सँ मजदूर छी

छलय घर मे जमघट हरदम, हित नाता सम्बन्धी के

कतऽ अबय छथि आब एखन ओ, प्रायः सब सँ दूर छी

काज करय छी राति दिना हम, तैयो मोन उदास हमर

साहस दैत बुझाओल कनिया, अहाँ हमर सिन्दूर छी

एहेन व्यवस्था हो परिवर्तित, लोकक सँग आवाज दियौ

एखनहुँ आगि बचल अछि भीतर, झाँपल तोपल घूर छी

बलिदानी संकल्प सुमन के, कहुना दुनिया बाँचि सकय 

नहि बाजब नढ़िया केर भाषा, ई खटहा अंगूर छी

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