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सोमवार, 16 जून 2014

गजल

एहि ठाम साट हेराए गेलै रामा
फेर आइ बलम बौराए गेलै रामा

चढ़ल साइठक जबानी केहन बुढ़बापर
चुलहाक नार चोराए गेलै  रामा

गाममे बसल घरे घर छै कंठी धारी
साँझ परल माँछ झोराए गेलै रामा

देख ढंग पुतक करनी आजुक आँगनमे
बाप केर आँखि नोराए गेलै रामा

‘मनु’ समाजमे सगर मोदी जीकेँ अबिते
माल संग चोर पकराए गेलै रामा 

(मात्रा क्रम : २१२१२१-२२२२-२२२)
©जगदानन्द झा ‘मनु’

गुरुवार, 12 जून 2014

लघु कथा : ककर दोख


जीबछ बाबूक पन्द्रह वर्खक बेटी ललिया, अति सुन्नर रूप जेना कि भगवान निचैनसँ गढ़ने होएत। पन्द्रहे वर्खक बएसमे साढ़े पाँच फूट नम्हर छरहरा शरीर नम्हर-नम्हर आँखि, कमलक पंखुरी सन ठोर, गोलका मुँहमे छोटगर पातर नाक, डाँर धरि नम्हर केश, सम्पूर्ण देह एक मेलमे। एक-एकटा अंग सुन्दरताक उदाहरण नेने। ताहिपर जखन ललिया अपन मनपसन्द केर जड़ीदार उज्जरा शलवार सूट आ ओहिपर उज्जरा ओढ़नी लए लिए तँ साक्षात सरस्वती जकाँ ओकर रूप निखरि जाइ।
ललियाक रूप सौन्दर्य आ सादगी देखि जीबछ बाबू लग बर्ख भरि पहिनेसँ वरक माए बाबू सबहक निवेदन आबए लागल जे अपन कन्याँ हमरा दऽ दिअ तँ हमरा दऽ दिअ। जीबछ बाबू अपन बेटीक भविष्य आ ओकर शिक्षा-दीक्षाकेँ नहि देखि, कन्याँदानकेँ अपन जिम्मेदारी वा बेटीकेँ बोझ बुझि एकटा नीक ललिये सन सुन्नर लड़का, माए बाबूक एक्केटा बेटा, ओकरो बएस कम्मे, ललियासँ चारि बर्ख बेसी, सभ किछु देखला बाद ओकर ब्याह ठीक कए लेला।
कनियाँ-पुतरा खेलए बला बएसमे आइ ललियाक ब्याह भए रहल छल। घर-आँगन, लोक-वेद सभकियो सजल धजल। दलानपर वर-वराती सभ आएल। मुदा अज्ञानी ललिया खुश, कुदैत खेलाइत। ओहि अज्ञानीकेँ कि बुझल जे ब्याह की है छैक। ब्याहक ललका साड़ीमे तँ ओकर रूप सौन्दर्य आओर निखैर कए कोनो देवी जकाँ लगए लागल।  
ब्याह भेलै। साते दिनमे दुरागमन आ ओकर बाद सासुर। सासुरमे सभ किछु नव-नव। नव-नव लोक, नव-नव घर आँगन, नव-नव समाज। समाजक मर्यादा आ नियम रूपी बन्हनसँ बन्हा कए ओ एकटा आँगनामे कैद भए क रहि गेल। अपन घरमे ओ मात्र खेलाएत छल मुदा एहिठाम सासु ससुरक सेवा, घरक काज। ई सब करैत-करैत ललियाक पैंख जेना उड़नाइ बिसैर गेलै। एहि भावनाक रेगिस्तानक गर्मीमे कएखनो कए ओकरा शीतलताक अनुभूति होए तँ अपन पतिक संगे। दुनू बाल-किसोर मोन एक दोसरकेँ बुझै-समझैक प्रयासमे लागल।
समाज आ नीतिकेँ एतबोसँ संतोख नहि। अपन समाजक गरीबी रूपी दानवसँ बचैक हेतु ललियाक पतिपर आओर एकटा बोझ। माए-बाप अपन स’ख स’खमे बेटाक ब्याह कए क एकटा सुन्नर पुतौह तँ आनि लेलनि मुदा आब अपन बेटापर कतौ बाहर जा कए कमाइकेँ लेल दबाब देबए लगलखीन। ओहो एहि दबाबकेँ बेसी दिन नहि सहि सकला आ ब्याहक छ’ महिना पछाति, सूरत जतए कि हुनक गामक बड़ लोक काज करैत छल, कोनो ग्रामीण संगे चलि गेला।
पन्द्रह दिनक मेहनतिकेँ बाद हुनका एकटा ट्रांसपोर्ट कम्पनीमे मुनीमक नौकरी भेट गेलनि। दरमाहा छह हजार रुपैया महिना। ई समाचार सुनि हुनक माए-बाबू बड़ खुस जे बेटा ६ हजार रुपैया महिना कमेए लागल। एक महिना पछाति ओ दू हजार रुपैया अपन खर्चा हेतु राखि बांकीकेँ चारि हजार रुपैया गाम पठेलनि। रुपैया पाबि हुनक माए-बाबू गद-गद भए गेला। मानु हुनक रोपल गाछ फरए लागल। मुदा ललिया एहि सभसँ अनजान। ओकरा ई बुझएमे नहि एलैजे एहि रेगिस्तानमे ओकरा लेल एकटा पानिक सेतु ओहो कतए आ किएक चलि गेलै। भरि दिन-राति उदास मोनकेँ मारि कोनो ना अपनाकेँ घरक काज आ सासु सासुरक सेवामे लगेने।
नोकरी पकरलाक चारि मास बाद, एक दिन ललियाक ससुर लग सूरतसँ फोन आएल जे हुनक बेटा अर्थात ललियाक पतिकेँ अपने कम्पनीक कोनो ट्रकसँ एक्सीडेंट भए गेलनि आ आब ओ एहि दुनियाँमे नहि रहला। ई सुनैत मातर जेना हुनका उपर बज्र खसि परलैन। आँखिक आगू अन्हार भए गेलनि। फोन एक कात गुरकल तँ अपने दोसर कात गुरैक गेला। जे सुनलक दौरल। आँगनमे भीरक करमान लागि गेलै। सभ कियो कानैत-खिजैत, दुखक सागरमे डूबल। मुदा सभकियो सभटा दोख हारि थाकि कए ललियेपर देबै लागल। जेहन मुँह तेहन-तेहन गप्प होबए लागल।
“अलक्षी”
“खाए गेलै”
“अभागल”
“दसे महिनामे सोदि गेलै”
“देखैमे........ भीतरसँ राक्षसनी”
“घर बलाकेँ तँ खाऐ गेलै आब एहि बुढ़बा-बुढ़ियाक की हेतै”
एहने एहने अनसोहाँत गप्प सभ ललियाक कानमे आबैत। ततबामे कोनो स्त्री आबि ओकर माँगक सेनुर मेटा देलक तँ दोसर कोनो स्त्री ओकर दुनू हाथक चूड़ी फोरि देलक। मुदा असहाय ललिया ई सभ देख ठक-बक, ओकरा किछु बुझहेमे नहि आबि रहल छलै जे की भेलै आ ई सभ की भए रहल छैक। सबहक गप्प मानी तँ ओकर घर बाला मरि गलै। ई मरनाइ कि होइ छैक। मरि गेलै तँ एहिमे ओकर की दोख। आ ओकर सेनूर किएक मेटेएल गेल, ओकर चूड़ी किएक फोड़ल गेल। खेएर समाजक व्यवस्था, ओ अज्ञानी की बुझत ओकर माथपर केहन  पहाड़ खसि परलै। मुदा एहिमे ओकर की दोख ? 
© जगदानन्द झा 'मनु'