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शनिवार, 6 अगस्त 2016

गजल

बनेलहुँ अपन हम जान अहाँकेँ
जँ कहि लाबि देबै चान अहाँकेँ

हँसीमे सभक माहुर झलकैए
सिनेहसँ भरल मुस्कान अहाँकेँ

कमल फूल सन गमकैत अहाँ छी
जहर भरल आँखिक बाण अहाँकेँ

पियासल अहाँ बिनु रहल सगर मन
सिनेहक तँ चाही दान अहाँकेँ

करेजक भितर 'मनु' अछि कि बसेने
रहल नै कनीको  भान अहाँकेँ 
(मात्रा क्रम ; १२२-१२२-२१ १२२)
(सुझाव सादर आमंत्रित अछि)
© जगदानन्द झा 'मनु' 

शुक्रवार, 5 अगस्त 2016

बेटाक बाप


        "ई जे भरि दिन नेतागिरीमे लागल रहै छी कि एहिसँ पेट भरत? चलू अप्पन पेटक आगि तँ जेना तेना मिझा लेब कनिक बेटीक ब्याहो केर चिंतासँ तँ डरू । भेल तँ ३-४ वर्खमे ओकरो ब्याह करए परत, ओहु लेल १०-१५ लाख रूपैया चाही ।"
         "केहेन गप्प करै छी ? आब ओ ज़माना नहि रहलै । बेटा आ बेटीमे फराके की? जेना बेटाक पढ़ाइ-लिखाइ लालन पालनमे ख़र्चा तेँनाहिते बेटीमे । बेटी बेटासँ कतौ कम नहि । आ हम्मर बेटी तँ लाखोमे एक अछि ।"
         "ई अहाँ बुझै छीयै मुदा समाजमे दहेज लोभी बेटाक बाप नहि ।"
© जगदानंद झा 'मनु' 

रभसल

"धूर भौजी ! अहुँ बड़ रभसल जकाँ किनादन करैत रहै छी ।"
"यौ लाल बाबु रहै दियौ, जँ हम एना रभसल जकाँ नहि करितौँ तँ, ई जे कोरामे भतिजाकेँ लदने रहै छी से मनोरथ अहाँक भैया बुते तँ रहिए गेल रहिते ।"
© जगदानंद झा 'मनु' 

मामासार (बीहनि कथा)


मामा आ सार पर केखनो विश्वास नहि करी । इतिहास गबाह अछि । नहि कोनो मामा भगिना के भेलै आ नहि कोनो सार बहिनोइ के भेलै । कंस, शकुनि, बंगाल रियासत केर बादशाह सिराजुदौल्लाक सार(मिर कासीम आ मिर साकी) , जायचन्द आ एहेन एहेन कतेको मामा आ सार घर-घरमे नुकेएल अछि । 
एकटा पूरान फकरा छै, जखन गिदड़के मौत अबै छै तँ ओ शहर दिस भागैत अछि । एहि फकराके आब एना बूझल जेए, जखन कोनो मनुखके बिपैत आबै बला होइ तँ ओ सासुर क भगैए वा सारके पोसैए । सार आ गहुमन साँपमे कोनो फराक नहि । ई दुनू कखन डैस लेत बिधने बुझता । आ जूएस गहुमन भेला मामा । (ई खालि हमर मंतव्य अछि जरूरि नहि जे अहुँ एकरा मानी । मामा अहाँके सार अहाँके जीवन अहाँके मर्ज़ी अहाँकेँ । हम तँ मात्र इतिहास आ अपन मंतव्य शेयर केलहुँ । 😊😊😊)
© जगदानंद झा 'मनु' 

गजल


साँप चलि गेल लाठी पीटे रहल छी
बाप मुइला पछाइत भोजक टहल छी

पानि नै अन्न कहियो जीवैत देबै
गाम नोतब सराधे सबहक कहल छी

आँखिकेँ पानि आइ तँ सगरो मरल अछि
राति दिन हम मुदा ताड़ीमे बहल छी 

कहब ककरा करेजा हम खोलि अप्पन 
नै कियो बूझलक हम धेने जहल छी

सुनि क' हम्मर गजल जग पागल बुझैए
दर्द मुस्कीसँ झपने 'मनु' सब सहल छी 
(बहरे असम, मात्रा क्रम- २१२२-१२२२-२१२२)
© जगदानन्दझा 'मनु' 

मंगलवार, 21 जून 2016

हमरा मिथिला राज चाही

भीख नहि अधिकार चाही, हमरा मिथिला राज चाही 
जे हमर अछि खूनमे खूनक अधिकार चाही 

जनक वाचस्पतिकेँ पुत्र हम, हमर चुप्पीकेँ नै किछु आओर बुझू
शांतचित्त हम समुद्र सन, हमर क्रोधकेँ सोनित चाही 

सिंह सन हम बलवान रहितो, मेघ सन हम शांत छी 
जुनि बिसरी ऊधियाइत मेघकेँ, मुठ्ठीमे संसार चाही

जाहि कोखिसँ सीता छथि जनमल, ओहि कोखिक संतान छी 
बाँहिमे प्रज्वलित अछि अग्णि, बस एकटा संकेत चाही 

भूखसँ व्याकुल छी,   मुदा उठाएब नहि फेकल टुकड़ी 
कर्ण बनि जे नहि भेटल, ममता केर अधिकार चाही

माए मैथिली रहती किएक,  निसहाय एना एतेक दिन 
होम करे जे तन मन अप्पन,  'मनु' लव कुश सन संतान चाही
जगदानन्द झा 'मनु'

सोहागिन

हल्द्वानी, हम आ सा । क़ब्रिस्तान पार कय क' हम दुनू पहाड़क उपर चढ़ैत, समतल जगह ताकि पार्ककेँ एकटा वेंचपर बैसि, देहक गर्मीकेँ कम करैक हेतु बर्फमलाइ (आइस्क्रीम) कीन खेनाइ शुरू केलौंहँ ।
दुनू गोटा अप्पन अप्पन आधा बर्फमलाइ खेने होएब कि, सा "जँ हम अहाँक सामने मरि गेलौं तँ हमर सारापर चबूतरा बना देब ।"
मेघ धरि उँच उँच पहाड़, चारू कात प्राकृतिक सौंदर्य, मखमल सन घास, स्वर्गसन वातावरण, बर्फमलाइ केर आनन्दक बिच अचानक एहेन गप्प सुनि, बर्फमलाइ हमर मुँहसँ छूटि हाथमे ठिठैक गेल । कनिक काल सा केर मुँह पढ़ैक असफल प्रयास केलाक बाद; "अवस्य एकटा नीक चबूतरा । जँ हम पहिने मरि गेलौं तँ एतेक व्यवस्था ज़रूर कय जाएब जे एकटा नीक चबू.... "
बिच्चेमे सा हमर मुँहकेँ अप्पन हाथसँ दाबैत, "नीक नहि साधारणे चबूतरा मुदा अहाँक हाथे आ ओहिपर लिखल हुए "सोहागिन सा" ।
@ जगदानन्द झा 'मनु'

प्रेम

गुदड़ी बाजारक भीड़ भाड़सँ निकलैत, एकटा दुकानक आँगा टीवीक आबाज सुनि डेग रूकि गेल । टीवीसँ अबैत ओकर अबाजे टा सुनाइ द' रहल छल । ओकर देह नहि देखा रहल छल मुदा अबाजेसँ ओकरा चिन्हनाइ कतेक आसान छै ।
आइसँ तीस वर्ष पहिने, हमरे संगे संग नमी वर्ग धरि पढ़ै बाली, सुन्दर, चंचल मात्र मूठ्ठी भरि डाँड़ बाली सु.....
"कि प्रेम इहे छैक की मात्र देहक प्रजनन अंगपर एकाधिकार बना कय राखैमे सफल भेनाइ?"
@ जगदानन्द झा 'मनु

बेगरता

दोसर मुँहेेँ करोटिया दय सुतल मकेँ अपना दिस घुमाबैत - "धूर जाउ ! कोना मुँह घूमेने सुतल छी, दस मिनट पहिने अप्पन बेगरता काल बिसरि गेलियै कोना जोँक जकाँ सटल छलौं।"

अगिला जनम

“डाँड़ टूटल जाइए भरि राति सूतलहुँ नहि बड़ तंग करै छी, अगिला जन्ममे अहाँ हिजड़ा होएब जे कोनो आओर मौगीकेँ एना तंग नहि कए सकब।”
“ठीक छै ! अगिला जन्म अगिला जन्ममे देखल जेतै, एहि जन्मक आनन्द तँ लए लिअ। आ अगिला जन्ममे ओहि हिजड़ाक ब्याह जँ अहिँक संगे भए गेलहि तँ ।"
© जगदानन्द झा 'मनु' 

मुँहझौँसा

“गै दैया ! एतेक आँखि किएक फूलल छौ ? लगैए राति भरि पहुना सुतए नहि देलकौ।”
“छोर, मुँह झौँसा किएक नहि सुतए देत, अपने तँ ओ बिछानपर परैत मातर कुम्भकरन जकाँ सुति रहल आ हम भरि राति कोरो गनैत बितेलहुँ।”

एसगर - प्रेम बीहनि कथा

बासोपत्ती बस अड्डा। बाउकेँ दिल्ली जेए बला ट्रेन दरभंगासँ पकरैक छलै । बासोपत्तीसँ दरभंगाक धरिक यात्रा बससँ । बसक इन्तजारमे बाउ एकटा लगेज हाथमे नेने ठाड़ । ततबामे सुधा अफसीयाँत भागि कय आबि बाउ लग ठाड़ होति, टूकुर टूकुर ओकर मुँह तकैत । दुनू आँखिसँ नोर निकलि सुधाकेँ गाल होति गरदनि धरि टघरि गेल ।
बाउ - "तु एतेक कनै किएक छेँ?"
सुधा बाउ केर दुनू हाथ खीच, ओकर हाथपर अपन मुँह रखैत, "हम कहाँ कनि रहल छी।"
ओकरा उदास आ कनैत देखि बाउ दूटा बस छोरि देलकै ।
"हमरो ल' चलू, अहाँ बिनु हम एहिठाम नहि जी सकब । ओहीठाम हम सबकेँ कहबै जे हम अहाँक नोकरानी छी । अहाँक नेनाकेँ खेलाएब, घरमे पोछा लगाएब, बर्तन धोब ।"
ई कथन छल एकटा बिधबा माएक जेकर बेटा दिल्ली बाली संगे ब्याह कय दिल्लीए बसि गेल छल आ माए एसगर गाममे ।
@ जगदानन्द झा 'मनु'

गजल

हारिकेँ बाद जीतो ' अबिते छै 
रातिकेँ बाद सगरो इजोते छै 

दुखक माला जपै छी किए दिन भरि
एहि जगमे घड़ी सुखक बहुते छै

नोर राखू पजारब गजल एहिसँ
किछु पुरनका खड़ेएल रहिते छै

बेंगकेँ जिन्दगी  नै इनारे भरि
भादबक बाढ़िमे जनिते छै

छोरि तकनाइ मुँह  हाथ नम्हर करु
किछु पबै लेल 'मनु' दाम लगिते छै

(मात्रा क्रम ; २१२-२१२-२१२-२२)
जगदानन्द झा 'मनु

शुक्रवार, 6 मई 2016

जगदीश चन्द ठाकुर 'अनिल' जीक लिखल गजल संग्रह "गजल गंगा" केर समीक्षा

सभसँ पहिने अनिल जीकेँ ई गजल संग्रह लिखबाक लेल बहुत बहुत बधाइ आ शुभकामना। मैथिली गजलक आकाश गंगामे एकटा आओर नव गजल संग्रह "गजल गंगा"क आगमन मैथिली गजलक दशा आ दिशा लेल बहुत शुभ संकेत अछि। एक बेर फेरसँ अनिलजी सहित आन सभ गजल प्रेमी मैथिलकेँ बधाइ। हमर अपने गजल ज्ञान बेसी नहि अछि तथापि एवं संग्रहक मादे हम किछु नीक बेजए कहैक चेष्टा कए रहल छी । आशा करैत छी जे 'अनिल'जी हमर धृष्टताकेँ क्षमा करता।

कुल ८१ टा गजल अपना भितर समेटने ई संग्रह बहुते नीक-नीक गजलक सुन्दर गजल गंगा बनल अछि। आब एहि गंगामे असनान कतएसँ शुरू करी अर्थात हम अप्पन गप्पक शुरूआत कतएसँ आरम्भ करी। तँ हम शुरूआत करैत छी;
गजलक व्याकरण पक्षसँ, आ गजलक व्याकरणक अ आ अछि मतला, काफिया, रदीफ, बहर आ मकता।
सभसँ पहिने मतला, मतला अर्थात गजलक पहिल शेर जे कि काफिया आ रदीफक निर्धारण करैत अछि। एहि संग्रहक सभ गजलमे अनिलजी मतलाक पालन बहुते सुन्दरसँ केने छथि। आब,
काफिया आ रदीफ : संग्रहक शुरूआतेमे अनिलजी संग्रहकेँ बहरक भिन्नताकेँ आधारपर दू भागमे  बँटैत ई लिखने छथि जे काफिया आ रदीफक पालन भेल अछि। आ ठीके रदीफक पालन एहि संग्रहक सभ गजलमे बड़ नीकसँ भेल अछि। सगरो संग्रहकेँ पढ़ला बाद बुझलौं जे बहुतो गजलमे काफियाक पालन सेहो नीकसँ भेल अछि। ओतए ३७% गजलक काफियाकेँ ठीक करैक  गुँजाइश अछि। चुकी ई संग्रह एखन अप्रकाशित अछि तेँ जँ सम्भव होइ तँ अनिलजी किछु संशोधित कएला बाद एकरा आओर बेसी उत्कृष्ट बना सकैत छथि।
जेना कि संग्रहक प्रथमे गजलक मतला-
"पढ़बाक मोन होइए <लिखबाकमोन होइए
किछु ने किछु सदिखन <सिखबाकमोन होइए"
एहिठाम काफिया भेल "e खबाक" मुदा गजलक आन आन शेर सबहक काफिया अछि बिछबाक, झिकबाक, निपबाक, <चिखबाक>, छ्टबाक, छिनबाक।  एहिठाम चिखबाक छोरि कए बाद बाँकी ????
एकबेर भाग पहिलकेँ गजल संख्या ५ केर मतला देखू-
"काँट फूस अछि <भरलबाटपर जहाँ-तहाँ
नढ़िया कूकुर <मरलबाटपर जहाँ-तहाँ"
आब एहि मतलाक रदीफ भेल "बाटपर जहाँ-तहाँ" जे की दुनू पाँतिमे कॉमन अछि। आब काफिया भरल आ मरलसँ भेल "रल"। मुदा आन शेर सबहक काफिया अछि दखल, पड़ल, जड़ल, महल, उड़ल, गड़ल। एहिमे पड़ल, जड़ल, उड़ल, गड़ल तँ ठीक मुदा दखल आ महल ?????
आगू बढ़ैत गजल १४ केर मतला-
"बहरक झंझटिसँ हमरा आजाद करु
हम गजल छी हमरा नै बरबाद करु"
एहि मतलाक काफिया भेल आकार बाद द (ाद) मुदा एहि गजलक आगूक शेर सबहक काफिया लेल गेल अछि याद, फरियाद, अनुवाद, लाज, काज, बात।  याद, फरियाद, अनुवाद ठीक तँ लाज, काज, बात???
एक बेर गजल १६ केर मतला देखल जेए-
"कानहापर गंगाजल ल' क' <बढ़लौं>कोना-कोना
मोन पड़ैए ऐ पहाड़पर <चढ़लौं>कोना-कोना"
एहिठाम काफिया भेल बढ़लौं, चढ़लौंसँ "ढ़लौं" मुदा एहि गजलक आन-आन शेर सबहक काफिया अछि; खसलौं, बचलौं, कटलौं, रखलौं आब ई सबटा कतेक ठीक????
कनेक आओर आगू बढ़ैत गजल २७ केर मतला-
"जुनि पूछू की <करै>छी हम
नित्य स्वयंसँ <लड़ैछी हम"
एहि मतलाक काफिया भेल "0रै" वा "0ड़ै" । आब एहि गजलक आगूक शेर सबहक काफिया जे लेल गेल अछि- डरै, बुझै, जगै, कनै, बजै, नचै, जनै, तकै। एहिमे "ड़रै"केँ छोरि बाद बाँकी सबटाकेँ की ठीक कहल जेए ??????


गजल संख्या २९ केर मतला-
"एतेक बाझल किएक रहै छी <अपनामेअहाँ
अबै छी बड़ी बड़ी राति क' <सपनामेअहाँ"
एहिठाम काफिया भेल अकार संग "पनामे"। मुदा शाइर एहि गजलक आगाँक शेर सभमे काफिया लेने छथि; पटनामे, सतनामे, घटनामे, अयनामे, बधनामे, गहनामे। मतलाक हिसाबे आन आन शेरक काफिया मेल नहि क' रहल अछि।
कनिक आगू जा कए गजल संख्या ४० केर मतला-
"चिन्ता तनकेँ <दागिरहल अछि की करियौ
मोन कतौ नै <लागि>रहल अछि की करियौ"
एहि मतलासँ जँ काफियाक निर्धारण हुए तँ काफिया  भेल, "0ागि"। मुदा शाइर एहि गजलक आन-आन शेरक काफिया देने छथि; भागि, ताकि, मांगि, कानि, आबि, काटि, कहब बेजए नहि जे " भागि"केँ छोरि आन कोनो मतलासँ मेल खाइत नहि अछि।
एहि तरहे कम बेसी एहि संग्रहक भाग १ केर गजल संख्या ६,९,१३,३०,३३,३५,३७,५१,५३,५४,५५ केर काफिया ठीक नहि अछि।
आब एहि भागक अन्तिम गजल, गजल ६१ केर मतला एक बेर देखल जेए-
"नदी छोड़ि क' <नहरमे>एलौं
गाम छोड़ि क' <शहरमे>एलौं"
आब एहि मतलासँ काफियाक निर्धारण हुए तँ काफिया भेल "हरमे" मुदा शाइर एहि गजलक आगूक शेर सबहक काफिया लेने छथि- कहलमे, जहलमे, महलमे, जूड़शितलमे, सहलमे, गजलमे । मतला आ आन-आन शेरक बिचमे काफियाक कोनो मिलान नहि।
आब आबी संग्रहक भाग दूमे। पहिल भाग जकाँ एहि भागमे सेहो शाइर मतला आ रदीफक पालन नीकसँ केने छथि। आब देखी काफिया तँ सबसँ पहिले भाग दू केर गजल संख्या ४ केर मतला-
"खेल सभटा <उसरिजाइए
लोक सभटा <बिसरिजाइए"
आब एहि मतलासँ काफिया भेल "सरि", मुदा आगाँक शेर सबहक काफिया अछि झखडि, ससरि, पिछरि, बिगरि, कुतरि, नचरि। ससरि छोरि मतलासँ मेल खाति आन शेरक काफिया नहि अछि
भाग २, गजल ६ केर मतला-
"जीवनकेँ <आशाबदलल
प्रेमक <परिभाषाबदलल"
एहिठाम काफिया भेल आकार बादक शा, षा अथवा सा । आशा, परिभाषा, बारहमासा, भाषा, अभिलाषा, तक तँ ठीक मुदा अन्तिम दूटा शेरक काफिया मौसा आ पाछाँ।
आब एकबेर देखी भाग २, गजल १७ केर मतला-
"सभ जिवइत अछि सुबिधामे
हम रहइत छी दुबिधामे"
एहिठाम काफिया भेल उकारकेँ बाद "बिधामे"। सुबिधामे, दुबिधामे केँ बाद आगाँक शेरक काफिया अछि, कवितामे, अनकामे, अपनामे, पटनामे, बसुधामे। एहिमे सँ एक्कोटा काफिया मतलासँ ठीक मेल नहि कए रहल अछि।
किछु एहने-सन भाग २ केँ गजल ९,१२,१८ आ २० केर काफिया सेहो ठीक नहि अछि। एहि संग्रहक अन्तिम गजलक मतला एकबेर देख लेल जेए-
"नीक बात किछु <कहूअहाँ
गीत गजलमे <रहूअहाँ"
कहू/रहूमे समान भेल "हू"। मुदा शाइर आन आन शेरक काफिया लेने छथि; चलू, धरू, करू, बड़ू । खाली  ू   ू   ू   ू तँ बिना "ह"केँ   ू   ू   ू   ू   के की कहल जेए ???
कतेक रास गजल एहनो अछि जाहिठाम काफिया तँ ठीक बनिरहल अछि मुदा काफियामे एक्के आखरक प्रयोग एकसँ बेसी बेर कएल गेल अछि । जेना भाग एकक गजल ९,२०,३६,४२ आ भाग दू केर गजल १० मे।
मतला, रदीफ, काफियाक बाद गजल व्याकरणक एकटा मुख अंग अछि मकता। मकता, अर्थात गजलक अन्तिम शेर जाहिमे शाइर अपन नाम वा उप नामक प्रयोग केने होथि। एहि संग्रहक कोनो गजलमे मकता़क प्रयोग नहि कएल गेल अछि।
आब आबी गजल व्याकरणक एकटा  पैधि कलापक्ष बहरपर। तँ जेना स्वयं शाइर स्वीकार केने छथि जे भाग १ केर ६१ टा गजलमे ओ सरल वार्णिक बहरक प्रयोग केने छथि। आ जेकर निर्वाह ओ बहुते नीकसँ केने छथि। आब भाग दू जाहिमे कुल २० टा गजल अछि, कोनो निर्धारित अरबी बहरक प्रयोग तँ नहि कएल गेल अछि, हाँ एहि गप्पक धियान जरूर राखल गेल अछि जे सब पाँतिमे समान मात्रा क्रम रहेए। अर्थात समान मात्रा क्रमक प्रयोग करैक सफल प्रयास केएने छथि। किछुठाम छोरि दी तँ। सबसँ पहिने तँ चन्द्रविन्दूकेँ जगह विन्दूक (अन्सुआर) प्रयोग कएल गेल अछि। ई शाइद टाइपिंग ग़लती हुए मुदा एहि कारणे बहुतो जगह मात्रा क्रम बिगैड़ गेल अछि। दोसर जतअ जतअ संयुक्ताक्षरक प्रयोग कएल गेल अछि ओतअ ओतअ मात्रा क्रम केर गलती भ गेल अछि।
जेना गजल संख्या ५ केर अन्तिम शेरक प्रथम पाँति-
"मोन केर प्रश्न अछि कते"
२१    २१  २१ -  २ १२ (शाइर द्वारा मानल)
२१    २२  २१ - २  १२ (वास्तविक)
एकटा आओर उदाहरण गजल ११ केर तेसर शेर देखल जेए-
"देश हमर अछि प्राण भाइजी"
२१    १२ - २   २१-  २१२ ( शाइर द्वारा मानल)
२१    १२-  १ २ २१ - २१२ (वास्तविक)
एहने तरहक दोख गजल १२ केँ दोसर शेरमे आ १८ म' गजलकेँ दोसर शेरमे अछि।
भाषा आ भाव पक्ष ; भाषापर जबरदश्त पकड़ लेने सम्पूर्ण संग्रहमे भाषाक एकरूपताक दर्शन होइत अछि। संग-संग नव रचनाकार सभ लेल सिखबाक लेल नीक प्लेटफार्म थिक अनिलजीक ई गजल संग्रह। अनिलजी बिना कोनो बेसाहल शव्दक प्रयोग केने एतेक सरल व्यबहारिक मैथिलीक शव्द सबकेँ गूंठि कए एकता नव शुरूआत केने छथि। समान्यसँ समान्य लोक, एक-एकटा गजलक एक-एकटा शेरक आनन्द ओहि छन अर्थात पढ़ैत वा सुनैत मातर ल'  सकैत अछि।
भाषा शिल्पक गप्प करी तँ एक-एकटा छोट-छोट शेरमे एतेक बेशी गप्प नुकेएल अछि जे सुनि आ सोचि कए मनक भितर ख़ुशिक लाबा फुटै लगै छैक। एकटा उदाहरण एहि संग्रहक पहिल गजलक एकटा शेर-
"दुइ ठोर थिक अथवा तिलकोर केर तडुआ
होइए तँ लाज लेकिन चिखबाक मोन होइए"
मिथिलाक भोजनक पाक-कलाक श्रेष्ठताक प्रतिक तिलकोरक तडुआ। जेकर स्वाद, कुड़कूड़ेनाइक जवाव नै, सुनिते मातर मुँहमे पानि एनाइ स्वभाविक। स्वादिष्ट, पातर, कड़कड़ तिलकोरक तुलना पातर ठोरसँ। जवरदश्त उपमय आ उपमानक प्रयोग। ओकर बादो, लाज होइतो चिखबाक मोन। एहेन एहेन सरल व पारम्परिक शव्द चयन हिनक गजल कौशलमे चारि चान लगा रहल अछि।
सम सामयिक मिथिला मैथिलीक समाजमे जतेक कोनो समस्या वा वाद विवाद अछि सभपर अपन कलम चलबैत सुन्दर-सुन्दर शेरक द्वारा अनिलजी लोकक आ समाजक धियान ओहि दिस दियाबैमे सफल भेल छथि।  समाजक अव्यवस्थाकेँ देख संघर्ष आ छिनबाक गप्प एक्के संगे कोना, देखू एहि शेरमे-
"आजादीक लेल एखनहँु संघर्ष अछि जरूरी
व्यर्थ गेल सभ मांगब छिनबाक मोन होइए"
संग्रहक नामे अनुरूपे एहि "गजल गंगा"मे अनिलजी सभ किछु समेटने एकरा सुन्दर रूप देबैमे सफल भेल छथि।
✍🏻 जगदानन्द झा 'मनु'

 

सोमवार, 8 फ़रवरी 2016

कहमुकरी-1

ओ उपर हम निच्चा रही
ओकर स्पर्शक बात की कही
केलक देहकेँ थौआ थौआ
के सखि साजन ?
ने सखि बौआ ।

कृष्ण कन्हैया

Bal kavita_231
कृष्ण कन्हैया

कृष्ण कन्हैया रास रचैया
माखन-मिश्री लाउ कने
खेल करै लए गोपी संगे
हमरो आंगन आउ कने
मारि गुलेंती फोरब मटकी
टोली अपन बनाउ कने
गाय चरेबै भोरे-साँझे
वंशी फेर बजाउ कने
ता थइ ता थइ नाच करब
ग्वाल-बाल संग आउ कने
पोखरिमे जा खूब नहाएब
छुट्टी सरसँ दिआउ कने

शुक्रवार, 22 जनवरी 2016

गजल

रूप मारूक तोहर देखते कनियाँ
ख़ून देहक सगर भेलै हमर पनियाँ

नै कतौ केर विश्वामित्र छी हमहूँ
प्राण लेलक हइर ई तोर चौवनियाँ

जरि क' तोहर पजारल आगिमे दुनियाँ
माय बापक नजरिमे बनल छै बनियाँ

नीक बहुते गजल कहने छलहुँ हमहूँ
आइ सभ किछु बिसरि बेचैत छी धनियाँ

झाँपि राखू अपन रूपक महलकेँ 'मनु'
भेल पागल कतेको देखि यौवनियाँ
(बहरे मुशाकिल, मात्रा क्रम; 2122-1222-1222)
जगदानन्द झा 'मनु'