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सोमवार, 2 अप्रैल 2012

मिथिला के माछक सुनू महिमा

मिथिला के माछक सुनूमहिमा,
मिथिला के ई चिन्हप्रतीक,
रंग-बिरंगक माछभेटइत अछि,
मैथिल के बड्ड माछ सप्रीत।

मारा माछक सुर-सुरझोर,
पिबते भागे ठंढ कठोर,
रोहू के ते बात नेपुछू,
दैवो सबहक नमरइछठोर।

ईचना माछ जो ठोर तरजाय,
मोनक सब दुख-दर्दबेलाय,
कातिक मास जे गईंचाखाय,
लसईक-फसईक बैकुंठोंजाय।

गोलही-भाकुर-नैनीकस्वाद,
खतम करे सब ढंगकविवाद,
पोठी, गरई, आ कांकोरक सन्ना,
सरलों भुन्ना अछिरोहूक दुन्ना।

सिंगही, मांगुर, कबईक बात,
वर्णातीत, सब हृदय जुरायत,
कोमलकाठ, बुआरी, भौरा, सौरा,
मुह पनियायल की बूढ़की छौरा।

गाबै “अमित” नितमाछक महिमा,
अछि मिथिला के ई एकगरिमा,
ब्याह श्राद्ध वा आनप्रयोजन,
करू माछ भोज के सबआयोजन।

रचनाकार- अमित मोहन झा

ग्राम-भंडारिसम(वाणेश्वरी स्थान), मनीगाछी, दरभंगा, बिहार, भारत।



नोट..... महाशय एवंमहाशया से हमर ई विनम्र निवेदन अछि जे हमर कुनो भी रचना व हमर रचना के कुनो भी अंशके प्रकाशित नहि कैल जाय।

मंगलवार, 6 मार्च 2012

“जय मिथिला जय मैथिली” के हुनक पहिल स्थापना दिवस पर समर्पित स्वागत पुष्प




मिथिला के हम वासी मैथिल,
मिथिला अछि बड्ड पुण्यक धाम,
उमा रमा बनि धिया उतरलइथ,
आ बनली शिव राम के बाम।

जय मिथिला जय मैथिली भाषा,
जतय शांति-प्रेम पौलइथ परिभाषा,
मोह-कपट-छल-छद्म जतय नहि,
पूर्ण जतय हृदयक सब आशा।

संस्कार जतय हृदय बसई अछि,
कर’, कर्म मे निरत रहइत अछि,
चिंतन मे नित ईशक वास,
सत्कर्म मे अछि सबहक विश्वास।

किये से मिथिला आइ उजैर गेलई?
किये मिथिला के एहेन पतन भेलई?
किये ज्ञानक गंगा ठमकि गेलई?
किये सब मानवता बिसरि गेलई?

कलियुग अछि मिथिलो मे आयल,
संस्कार जतय-ततय हेरायल,
बिसरल मानव, मानवताक मोल,
हेरा देलहु किछु धन अनमोल।

शुश्रुत, विदेह के पुनः बजाबय,
आर्यभट्ट, अयाचीक के फेर स जगाबय,
घोषा, अपाला, भारती के लाबय,
फेर स शंख पांचजन्य बजाबय,

विश्व-पटल पर मिथिला के पहुंचाबय,
मैथिली के जन-जन के भाषा बनाबय,
मिथिला मैथिली के दियाबइल सम्मान,
भेल “जय मिथिला जय मैथिली” क निर्माण।

नवयुवकक अछि ई पुकार,
नहि केवल पुकार, सिंहक दहाड़,
चलु भेल भोर निद्रा त्यागु,
अहि मुहिम मे चलु आगु-आगु।

नहि भेटत पुनः माँ के सेवाक वरदान,
पूर्ण करू हृदयक अरमान,
समस्त मैथिल के एक सूत्र मे बान्हय,
अमित करू “जय मिथिला जय मैथिलीक संग प्रयाण।

हमर ई रचना जय मिथिला जय मैथिली” ग्रुप जे मैथिल कला, संस्कृति, लोक-व्यवहार आदि के उत्थान के हेतु कृतसंकल्पित अछि, के हिनक पहिल स्थापना दिवस पर हमरा सब “जय मिथिला जय मैथिली” परिवार के तरफ से छोटछिन उपहार।

रचनाकार- अमित मोहन झा
ग्राम- भंडारिसम(वाणेश्वरी स्थान), मनीगाछी, दरभंगा, बिहार, भारत।

नोट..... महाशय एवं महाशया से हमर ई विनम्र निवेदन अछि जे हमर कुनो भी रचना व हमर रचना के कुनो भी अंश के प्रकाशित नहि कैल जाय।
                            
                              (“जय मिथिला जय मैथिली परिवार”)

बुधवार, 25 जनवरी 2012

लाल ठोर कारी केश गोर गाल बबाल करैए


लाल ठोर कारी केश गोर गाल बबाल करैए,
अहांक  नैन कटार, करेजक निहाकरैए

यौवन आयल उफान देखि हिमवानों हेरा गेल,
ओहि स ढलकइत अहाँक ओढ़नी बबाल करैए

अहांक चालिक ठुमका पर आपण हाल की कहु,
ओहि पर चौवन्नी मुस्की सबके बेहाल करैए

अहांक मोहिनी मुख देखिक ते चानो लजा गेल,
ताहि पर जुल्मी तिलबा सजनी कमाल करैए

अहांक आंखिक नशा से  ते “अमित बौराये गेल,
मुदा अहाँ हेबे किनक? सब नजर सबाल करैए 

रचनाकार--अमित मोहन झा
ग्राम- भंडारिसम(वाणेश्वरी स्थान), मनीगाछी, दरभंगा, बिहार, भारत।

नोट..... महाशय एवं महाशया से हमर ई विनम्र निवेदन अछि जे हमर कुनो भी रचना व हमर रचना के कुनो भी अंश के प्रकाशित नहि कैल जाय।

सोमवार, 16 जनवरी 2012

हम छी मिथिला धाम के ना

हम छी मिथिला धाम के ना,
हम छी मिथिला धाम के ना,
नहि दरभंगा नहि मधुबनी,
नहि छी हम मधेश के,
नहि एहि पारक नहि ओहि पारक,
बाबा जनक केर गाम के ना,
हम छी मिथिला धाम के ना।  

बाबा जनक के बागक फुल,
जुनि करू अहाँ कुनो गुरुतर भूल,
अरहुल, चम्पाऔर चमेली,
तीरा गेंदा कियो छईथ बेली,
एहि बागक सब श्रिंगार गे ना,
हम छी मिथिला धाम के ना।

नहि भंडारिसम नहि शिवरामक,
नहि नवटोलक नहि कोनो गामक,
पूत-सपूत भेलहू मिथिला के,
मंडन मिश्रक गाम के ना,
हम छी मिथिला धाम के ना।

नहि भागलपुर नहि सहरसा,
नहि छी हम कटिहारक के,
ई सब मिथिला गामक टोल,
सुन्नर मैथिली बोल गे ना,
हम छी मिथिला धाम के ना।

जाति-पाति के नहि अछि बंधन,
भातृप्रेम के भेटय संरक्षण,
नारी छईथ जतय पूजल जाइत,
वैह सीता केर गाम के ना,
हम छी मिथिला धाम के ना।

खट्टर काका के तर्क “अमित” अछि,
विद्यापति के गीत यौ,
चंदा, लाललिखल रामायण,
सुग्गा सुनाबईथ वेद यौ ना,
हम छी मिथिला धाम के ना।

रचनाकार--अमितमोहन झा
ग्राम-भंडारिसम(वाणेश्वरी स्थान),मनीगाछी, दरभंगा, बिहार,भारत।

नोट..... महाशय एवंमहाशया से हमर ई विनम्र निवेदन अछि जे हमर कुनो भी रचना व हमर रचना के कुनो भी अंशके प्रकाशित नहि कैल जाय।

शनिवार, 7 जनवरी 2012

अथ कलियुगी पति चालीसा




दोहा- पति चरण सुख होइत अछि,
     पति चरण दुख होत
     कलियुगी पतिक सामने,
     लज्जित होइत खड्योत।

हे पतिदेव ज्ञान के आगर,
पत्नी अबिते बनला बागर,
छटपट-छटपट ओना करई छईथ,
जेना बलि-प्रदान के छागर।

पति सब माथ पर हाथ दैथ,
जखने केला बियाह,
साढ़े साती शुरू भेलाइन्ह,
जीवन भेलाइन्ह सियाह।

जय जय हो जय जय पतिदेवा,
करता निस दिन पत्नी सेवा,
पत्नी के उपमा देल न्यारी,
चन्द्रमुखी सन लगई छी प्यारी।

पत्नी मे ओ स्वर्ग देखई छईथ,
देवी बुझि-बुझि नमन करई छईथ,
कल जोरि निस दिन विनय करई छईथ,
चारु धाम एके मे पबई छईथ।

पत्नी सेवा मे निरत रहे,
भरि दुनियाँ से ओ विरत रहे,
कनियाँ कनियाँ नित मंत्र जपे,
ई मंत्रक माला हाथ रखे।

सासुर के बैकुंठ बनेता,
सार ससुर संग तास खेलेता,
सारि ले अनता निक सनेश,
सासुर सेवा परम उद्देश्य। 

पत्नी भक्तक बहुत प्रकार,
कियो करैथ प्रेम आ कियो प्रहार,
कियो चापलूस कियो उदार,
नहि अछि हमर बात निराधार।

किछ पत्नी भक्तक बात सुनू,
हुनको गप पर कान धरू,
“ॐ पत्नीयाय नमः” के मंत्र जपु,
संग पत्नी भक्तक भेद सुनू।

फल्लाँ पत्नी के गरिएता,
चिल्लाँ गप दय के सरिएता,
तै सब स जो बात नै बनले,
तहन ते ओ फेर लतियेता।

कियो बजाबैथ हे यइ कनियाँ,
अहाँ ले हम लायब पैजनियाँ,
हीरा जरल गोल नथुनियाँ,
अहाँ छी हमर दिलजनियाँ।

कियो बजाबैथ यइ बौआक माँ,
अहाँ लगई छी चान जकां,
रहइथ निहारईथ साँझ आ भोर,
चान के देखे जेना चकोर।

कियो बजाबैथ लय के नाम,
अहाँ बिना मोर जीवन उदाम,
हे हमर जीवनक चिर-भोर,
अहाँ बिना मोर जीवन थोर।

कियो प्रेम से देलईथ उपनाम,
पम्मी स्वीटी आम लताम,
से कनियाँ मचबे कोहराम,
करे परईन्ह जों घरक काम।

कियो बजाबैथ सुनई छी यइ,
मर कुदई छी किये भरि अँगना,
भरि राति जूनि अहाँ माथा खाऊ,
काल्हिए हम आनि देब कंगना।

कियो बजाबैथ हे गै मौगी,
तोरा सन नहि देखलौ ढोंगी,
डंटा से तोरबौ डरबासि,
आब अगर जों तू केले खटरासि।

भरि दिन परल खाट तोरई छै
हमर माय स काज करबई छै,
भोरे तोरा चाहियौ बेड टी,
भले बेचय परे हमरा कुरता-धोती।

भाई अहाँ के बड़ा जुआरी,
बाप अहाँ के देने छल पारी,
पारी हरदम खाय खेसारी,
अहाँ मुह मे परल सुपारी।

कल जोरि विनती करत तिहारी,
करू अहाँ जूनि एना घेथारी,
आगु पाछु लोग हंसईए,
किए करई छी मारा मारी।

कियो चापलूस कियो मलंग,
कियो गप्पकर कियो दबंग,
ई कनियाँ बरक प्रेम देखि-देखि,
“अमितो”क मून मे उठल तरंग।

पति चालीसा पत्नी गावे,
स्वामी प्यारी नाम कमावे,
पति उपास पत्नी मन भावे,
संतानवती पत्नी कहलावे।

पत्नी मंडली सुइन लिय,
जूनि खाउ हमरा स खार,
ई पढ़ि जों तमसा गेलौ,
निज पति के दु-चारि बेलना मारु।

पत्नी समान देवी नहि दूजा,
निस दिन करू साँझ-भोर पूजा,
संत “अमित” के इहे विचार,
ईहो छईथ कल्पित पत्नी लग लाचार।

दोहा-पत्नी सेवा सब पति करू,
    संत “अमित” करैथ उचार,
    जों हुनकर भृकुटी टेढ़ भेल,
    नहि कालो लग उपचार।

नोट....... साग्रह निवेदन जे अपने सब एही रचना के मात्र हंसी-मजाकक रूप मे लिय, यदि कुनो भी व्यक्ति के भावना आहत होइत अछि, ते हम क्षमाप्रार्थी छी।  

रचनाकार- अमित मोहन झा

ग्राम- भंडारिसम(वाणेश्वरी स्थान), मनीगाछी, दरभंगा, बिहार, भारत।

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