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गुरुवार, 24 मई 2012

मानु ने मानु.....

मानु ने मानु,
नव चेतना स दूर,
हम मैथिल मजबूर,
सभ्य होबाक मुखौटा लगौने,
स्वयं अपन रीढ़क हड्डी तोरै छि,
जागलो में किछ नई बुझै छि,
युवा छि,
पर साहस कहाँ ?
स्वाभिमान बनेबाक
सामर्थ्य कहाँ ?
समय संग चलैक,
दृष्टी कहाँ ?
प्रतिकार करैक,
तर्क कहाँ ?
मानु ने मानु,
अहाँक अधोगतिक,
बिज पहिनहि रोपल गेल अई,
दहेजक   बिष पैन स,
अहाँक नहौल गेल,
अहाँ महैक गेल छि,
भिनैक गेल छि,
प्रखर संस्कृति स लुढैक गेल छि,
आनक पुरुसार्थ पर,
ठाढ़ होबाक कोशिस,
अपाहिजे त बनाओत,
क्रमशः  और,
निस्तेज निर्बल होइत जैब,
प्रागतिक भ्रम में फँसल,
स्वयं  स हारैत,
कोन रेस में भगैत छि,
ठहरू  !
थोरेक सोचु ,
अहाँ स्वयं के कतेक सम्मान करै छि,

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