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मंगलवार, 15 मई 2012

गजल


हम ढोलक छी सदिखन बजिते  रहलहुँ
नहि सुनलक कियो बात पिबिते रहलहुँ

हमर मोनक बात मोने में रहिगेल बंद
कहब कोना जीबन भरि सोचिते रहलहुँ

जएकर छल आस ओ सभ तँ छोरि देलक
अनचिन्हार सँ ससिनेह भेटिते रहलहुँ

चीरो क' करेजा देखाएब तँ पतियाएत केँ
अपन टूटल करेज केँ जोडिते  रहलहुँ

बुझाएब कोना मोन केँ शराबो भेल महग
आँखि निहारि मनु आब तँ तकिते रहलहुँ

(सरल वार्णिक बहर, वर्ण-१७)
जगदानन्द झा 'मनु'

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