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रविवार, 11 मार्च 2012

गजल

किस्त-किस्त में जिनगी बिताबै लेल मजबूर छी
माटि पानि छोरि अपन, किएक एतेक दूर छी

आबै जाए जाउ घुरि-घुरि अपन-अपन घर
घर में रोटी नै, रखने माछ-भात भरपूर छी

तिमन-तरकारी बेच-बेच करू नै गुजरा यौ
घुरि आऊ अपन गाम, एतुका अहाँ हजूर छी

परदेश में बनि कतेक दिन रहब परबा
अपन घर आऊ, एतए के अहाँ तs गरूर छी

अपन लोकक मन-मन में मनु अहाँ बसुयौ
परक द्वारि पर बनल किएक मजदुर छी
***जगदानन्द झा 'मनु'

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