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शुक्रवार, 2 मार्च 2012

{ गजल }

देह मे सटलै जखन देह सिहरि गेलै देह ,
अंग-अंग फड़क= लागलैए लसरि गेलै देह ,
एकाएक बसंतक हमला भेलै मौसम पर ,
नव पात भरल गाछ जेकाँ मजरि गेलै देह
जेना आलसी मनुष्य लेल समय नै ठहरै छै ,
ओहिना कँप-कँपा क= क्षण मे ससरि गेलै देह ,
साँस मे तेजी ,खूनक प्रवाह बढ़ि गेलै पल मे ,
लड़ाइ मे ज्ञानी पुरूष जेकाँ सम्हरि गेलै देह ,
भाइ डर सँ नै खुशी सँ सिहरल देह बुझू ,
शनी कए प्रकोप हटल से उचरि गेलै, देह ,
पहिलुक बेर सिनेह मे एहने सन होइ छै ,
"अमित" वहशी लोक कए त= उजरि गेलै देह . . . । ।
अमित मिश्र

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