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दूर मिथिलाक पावन धरतीक एकटा गामक पोखरि भिरपर
कुटीमे रहैत बाबा । गामक नजरिमे ओ पागल मुदा हुनक नजरिमे ई दुनियाँ पागल। एक
दिन हुनकर दर्शनक सौभाग्य भेटल । समान्य देखाए बला ओहि बाबाक भीतर हमरा आलोकिक
शक्तिक अनुभूति भेल । अप्पन मोनक जिज्ञासा शांत करैक लेल हम हुनकासँ एकटा प्रश्न
पुछलहुँ, “बाबा स्वर्ग की छैक ।”
बाबा मुस्काइत, “ई तोहर
जिज्ञासा छऽ की हमर परीक्षा ?”
“क्षमा करब बाबा, ई अहाँक
परीक्षा नहि अछि । जखन तखन सभक मुँहसँ सुनैत छी फल्लाँ काज करब तँ स्वर्ग जाएब
फल्लाँ काज करब तँ नर्क जाएब मुदा हम आइ धरि नहि बुझि पेलहुँ जे स्वर्ग की अछि ।
हमरा विश्वास अछि जे अपनेक उत्तरसँ हमर मोनक जिज्ञासा अवश्य शांत होएत ।”
बाबा, “स्वर्ग नामक कोनो जगह वा
चीज नहि छैक, (किछु काल शांत रहला बाद) ई मात्र अहाँक मोनक सुखद अनुभूति अछि ।
जाहिखन अहाँ दुख आ सुखकेँ अबस्थासँ उपर भऽ जाइ छी, अर्थात दुखसँ दुखी नहि आ सुखसँ
सुखी नहि । जाहिखन अहाँ समुच्चा चर अचर अस्तित्वसँ प्रेम करए लगै छी, काम, क्रोध,
लोभ, अहंकार, घृणा आदि बिकारसँ अपनाकेँ दूर रखैमे समर्थ भए जाइ छी । डर अहाँक
भीतरसँ खत्म भऽ जाइए । सदिखन आनन्दक अबस्थामे रहैत छी..... इहे स्वर्ग अछि ।”
“कि ई सभ सम्भब छैक ।”
“सम्भब
तँ छैक मुदा बड़ कठीन । सभ बूते ई नहि भए सकै छैक । एतेक कठीन छै जे लोककेँ असम्भब
जकाँ बुझाइत छै । कियो एहिपर विश्वास करै लेल तैयार नहि अछि आ एकरा जीवनसँ फराक
मुइला बादक क्रिया बता देल गेल छैक ।”
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