तप्पत माटि
तड़पि रहल छै
बरखा लेल ।
बुन्नी झहरै
सगरो पसरल
माटिक गंध ।
गरदा-बुन्नी
दुनु संग सानल
माटिक लड्डू ।
देखू देखिते
पोखरि बनि गेल
खेत-पथार ।
डोका- कांकौड़
लऽ लऽ छपकुनिया
बीछय सभ ।
धानक बीया
उजरल बिड़ार
खेत रोपेतै ।
खूब उपजा
भरि जैत बखारी
रीन-उरीन ।
ककरो लेखे
देवक वरदान
हेतैक मुदा !
ककरो घर
गर-गर चूबय
सड़ल चार !
*पंकज चौधरी (नवलश्री) *
< ०६.०७.२०१२ >
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