करेजा मे घूसल एहेन कलेश
पल मे बदैल गेल सुन्दर रुप आ भेश
एहेन बज्र खसौलक विधाता
तौर देलक जिनगी केर डोर
ईजोतो मे सिर्फ अन्हार अछि
संतोष धरब ककरा पर
रोकने नै रुकै या आखिक नोर
हे सखी पहिने आबि
रांगल जिनगी केर रांगै छलौ
करम हमर फूटल
अपन सँ संग छूटल
अहुँ किया फेरै छी मुँह
कनेक खूशी देबय मे किया लागै या अबुह
जी के जेना रोज मरै छी
ककरा देखायब ई नोर
रोज आँचर मे धरै छी
ई नोर नै निकलैत अछी सिर्फ,
अपन दुखमयी जिनगी आ दशा पर
बल्कि किछू लोकक अवहेलना आ कुदशा पर
शूभ काज सँ राखल जाय या हमरा दुर
किछू लोकक मोन अछि कतेक क्रुर
हे सखी हमहु अही जेना नारी छी
मुदा भेद अछी सिर्फ एतवा
लोक कहैत अछी हमरा विधवा
मैथिली साहित्य आ भाषा लेल समर्पित Maithiliputra - Dedicated to Maithili Literature & Language
बुधवार, 28 दिसंबर 2011
'कलेश"
Labels:
कविता,
रवि मिश्रा’भारद्वाज’

सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें