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शनिवार, 22 दिसंबर 2012

सभसँ प्रिय बस्तु

दादाजी दिन भरिकेँ थाकल झमारल घरमे अबैत छथि । हुनका बैसति देरी दादीक तेज स्वर गुइज उठै छनि - " आबि गेलहुँ दिन भरि बौवा कए । ई जे दिन भरि छिछियाइत रहै छी से एहि मिथिला मैथिली सँ की घरक चूल्हो जड़त ।" दादाजी शांत गंभीर होइत - "चूल्हा तँ नहि जड़त मुदा हमर सभ्यता संस्कृति हमर माएक भाषा जे हमर सभक हाथसँ छूति रहल अछि एनाहिते छुटैत रहल तँ एक दिन लोप भए जाएत आ एहन अवस्थामे कि जरुड़ी अछि ? घरक चूल्हा जड़ेनाइ की अपन माति पानि सभ्यता आ सरोस्वतीक कंठसँ निकलल मैथिलीक मिझएल आगिकेँ जड़ा कए प्रचंड केनाइ ।" दादीजी हुनकर गप्प सुनि चुप्प । ओ शाइद सभ्यता संस्कृति माएक भाषा माति पानि एहेन भारी भारी शव्दक कोनो अर्थ नहि बूझि पएलि मुदा दादाजीक छोड़ैत साँससँ एतेक तँ अबस्य बूझि गेलि जे हुनकासँ हुनक कोनो सभसँ प्रिय बस्तु दूर भए रहल छ्लनि ।

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