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मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012

गजल


मधुर साँझक इ बाट तकैत कहुना कऽ जिनगी बीतैत रहल हमर।
पहिल निन्नक बनि कऽ सपना सदिखन इ आस टा टूटैत रहल हमर।

कछेरक नाव कोनो हमर हिस्सा मे कहाँ रहल कहियो कखनो,
सदिखन इ नाव जिनगीक अपने मँझधार मे डूबैत रहल हमर।

करेज हमर छलै झाँपल बरफ सँ, कियो कहाँ देखलक अंगोरा,
इ बासी रीत दुनियाक बुझि कऽ करेज नहुँ नहुँ सुनगैत रहल हमर।

रहै ए चान आकाश, कखनो उतरल कहाँ आंगन हमर देखू,
जखन देखलक छाहरि, चान मोन तँ ओकरे बूझैत रहल हमर।

अहाँ कहने छलौं जिनगीक निर्दय बाट मे संग रहब हमर यौ,
अहाँक गप हम बिसरलहुँ नहि, मोन रहि रहि ओ छूबैत रहल हमर।
मफाईलुन (ह्रस्व-दीर्घ-दीर्घ-दीर्घ) - ५ बेर प्रत्येक पाँति मे।

प्रेम दिवस

प्रेम दिवस पर देख रहल छी
चहुँदिसि प्रेम अछि पसरल
मिलि रहल सभ छथि प्रेमसॅ
हमहँू प्रेम दिवस पर मोनक बात कहने रही
ओ हँसिके स्वीकार केने छलीह
खुशी के ठेकाना नहिं छल प्रेमसॅ
एखन एहि बात के बस साल भरि भेल
कालिहे ओ हँसि क कहलीह
अहाँ के छोडि़ जा , रहल छी प्रेमसॅ
हम पुछलयिन्ह हमर की होयत ?
ओ कहलीह अहँू दोसर ताकि लिय
एहि प्रेमदिवस पर प्रेमसॅ
प्रेमक ई रुप देखि हम अवाक भ गेलौंह
मुँहसॅ किछु नहिं बहरायल
जे कहितियन्हि प्रेमसॅ
भाई प्रेमक बात जुनि करु
प्रेमक मारल आई धरि मरई छी
आब डर लागय अछि प्रेमसॅ

आशिक ’राज’

रविवार, 12 फ़रवरी 2012

गजल-२१

जरि-जरि झाम बनलहुँ हम
सोना नहि बनि पएलहुँ हम

कतेक अभागल हमर भाग
अपन सोभाग हरेलहुँ हम

अपन जीबन अपने लेलहुँ
किएक लगन लगेलहुँ हम

सुगँधा अहाँ के विरह में देखु
की की जरलाहा बनलहुँ हम

अहाँ विरह के माहुर पिबैत
मरनासन आब भेलहुँ हम

जतेक हमर मनोरथ छल
संगे सारा में ल अनलहुँ हम

मातल प्रेमक जडित आगि में
खकसिआह मनु भेलहुँ हम
***जगदानंद झा 'मनु'

गजल--अमित मिश्र

जीवन मे जौँ नै रहबै कने सामने रहू ,
जा धरि चलै छै साँस हम्मर सामने रहू ,
केहनो हो मौसम फुल गमक नै छोड़ै छै ,
प्रेमक गाछ कए फुल छी गमकौने रहू ,
लोग कतबो दुषित करै छै पर्यावरण ,
सुर्य-चान उगबे करतै समझने रहू ,
जौँ हटि जायब प्रियतम अहाँ सामने सँ ,
हमरा संग सिनेह हारत , जीतौने रहू ,
ऐ वालेंटाइन देखा दियौ प्रेमक तागत ,
नभ सँ भू धरि प्रेम जाम छलकौने रहू
काँट इ जमाना छै सिनेह गुलाबक फुल ,
"अमित " नदी कए दुनू कात सम्हारने रहू . . . । ।
अमित मिश्र

शनिवार, 11 फ़रवरी 2012

MAITHILI KAVYA: KAVITA

MAITHILI KAVYA: KAVITA: " पद-चिन्ह " नै कान तूँ! नै कान तूँ ! एक दिन करबाए नाम तूँ आई कष्ट काटि रहल छें तूँ एक दिन करबाए नाम तूँ नै कान तूँ ! नै कान तूँ...

शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2012

गजल


चढल फागुन हमर मोन बड्ड मस्त भेल छै।
पिया बूझै किया नै संकेत केहन बकलेल छै।

रस सँ भरल ठोर हुनकर करै ए बेकल,
तइयो हम छी पियासल जिनगी लागै जेल छै।

कोयली मधुर गीत सुना दग्ध केलक करेज,
निर्मोही हमर प्रेम निवेदन केँ बूझै खेल छै।

मद चुबै आमक मज्जर सँ निशाँ चढै हमरा,
रोकू जुनि इ कहि जे नै हमर अहाँक मेल छै।

प्रेमक रंग अबीर सँ भरलौं हम पिचकारी,
छूटत नै इ रंग, ऐ मे करेजक रंग देल छै।
सरल वार्णिक बहर वर्ण १८
फागुनक अवसर पर विशेष प्रस्तुति।

गजल-२०

गुमान जिनका पर छल ओ मुँह मोरि लेलैंह
दर्दक इनाम दय, खुसी सँ नाता जोरि लेलैंह

हमर दर्द कए आब ओ समझै छथि मखोल
छन में हँसि कय, हमरा सँ नाता तोरि लेलैंह

ओ की बुझता पियार केनाई ककरा कहैत छै
जए घरी-घरी में अपन करेज जोरि लेलैंह

पियारक फूल पर चलब आब ओ की सीखता
विरह के अंगार पर चलब जे छोरि लेलैंह

'मनु' नादान, नै हुनका मिसियो भरि चिन्हलहुँ
मोनक बात की, करेजो हमर ओ फोरि लेलैंह
***जगदानंद झा 'मनु'

गुरुवार, 9 फ़रवरी 2012

कविता-मखानक पात


जहिना मखानक पात नया मे काँट सँ भरल होइ छै ,
आ पुरान भेला पर कोमल भs जाइ छै ,
एकटा छोट बच्चा एक्के हाथे मसैल सकै छै .
ओहिना मनुष्यक जीवन होइ छै ,
जखन धरि जुआनी तखन धरि बड़ बलगर ,
जखने देह खसल आँखि धसल दाँत बाहर ,
बस लाति-मुक्का सँ स्वागत शुरू भ' जाइ छै ,
जुआनी मे जे पाँच-पाँच सेर दुध पिबै छल ,
आब आधा कप चाह गारिक बिस्कुट संग भेटै छै ,
जीवन भरि जे अपन कपड़ा नै खिचलक ,
पुतहु कए साड़ी चुप-चाप खिचs लागै छै ,
जकर चरणक धुल इलाका कए लोग माथ लगबै छल ,
अपन बेटा कए चरण पकड़ै लए विवश भ' जाइ छै ,
ताहि पर जै कोनो बिमारी भs जाइ ,
सोचू जौँ लकवा मारि जाइ ,
त' केहन हाल हेतै ,
सच मे मनुष्यक जीवन मखानक पात छै ,
अमित मिश्र

गजल-- अमित मिश्र

चाँन देखलौ त' सितारा की देखब ,
अन्हारक रूप दोबारा की देखब ,
प्रेमक सागर मे बड़ मोन लागै ,
डुबS चाहै छी त' किनारा की देखब ,
एहि ठामक मिठाई सँ बेसी मिठ ,
रूपक छाली दोबारा की देखब ,
अपने आप राति रंगीन भ' जाए ,
फेर बोतलक ईशारा की देखब ,
मेघक डरे चान नै बहरायल ,
ओ नै औता त' नजारा की देखब ,
जखन यादिक सहारे जी सकै छी ,
तखन चानक सहारा की देखब . . . । ।
अमित मिश्र

{{ होली कए गजल}}

चढ़लै फगुआ सुनि लिअ ,
मस्ती चढ़ल छै जानि लिअ ,
जोगीरा संग झुमै जाउ यौ ,
मौसम सँ खुशी छानि लिअ ,
रोक-टोक नै सब पिने छै ,
झुमु-नाचु छाती तानि लिअ ,
लाल पियर गुलाबी कारी ,
सब रंगक गड्ढा खुनि लिअ ,
अबिरक खुशबू गमकै ,
रंगक चादर तानि लिअ ,
रामा छै सासुर मे बैसल ,
सारि कने रंग मानि लिअ ,
अबिर द' क' गोर लागै छी ,
माथ हम्मर ,हाथ आनि लिअ . . . । ।
अमित मिश्र

बुधवार, 8 फ़रवरी 2012

गजल


धूप आरती हम अनलहुँ नहि 
जप-तप करब सिखलहुँ नहि 

सदिखन कर्तव्यक बोझ उठोने
अहाँक ध्यान किछु धरलहुँ नहि 

की होइत अछि माए पुत्रक नाता
एखन तक हम बुझलहुँ नहि

हम बिसरलहुँ अहाँकेँ जननी 
अहुँ एखन तक सुनलहुँ नहि

अपन शरणमे लऽ लिअ हे माता
ममता अहाँक तँ जनलहुँ नहि

(सरल वार्णिक बहर, वर्ण-१३ )


जगदानन्द झा 'मनु' 

मंगलवार, 7 फ़रवरी 2012

गजल


चलल बाण एहन इ नैनक अहाँक, मरलौं हम।
सुनगल इ करेज हमर सिनेह सँ बस जरलौं हम।

भिडत आबि हमरा सँ, औकाति ककरो कहाँ छै,
जखन-जखन लडलौं, हरदम अपने सँ लडलौं हम।

हम उजडल बस्ती बनल छी अहाँक इ सिनेह सँ,
सिनेहक नगर मे सदिखन बसि-बसि उजडलौं हम।

हम तँ देखबै छी अपन जोर मुँहदुब्बरे पर,
कियो जँ कमजोर छल, पीचि कऽ बहुत अकडलौं हम।

अहाँ डरि-डरि कऽ देखलौं जाहि धार दिस सुनि लिअ,
सब दिन उफनल एहने धार मे उतरलौं हम।
फऊलुन (ह्रस्व-दीर्घ-दीर्घ)--- ५ बेर प्रत्येक पाँति मे।

गजल



ह्रदयसँ सटा तँ लिअ 
अहाँ प्रीत लगा तँ लिअ  

हम जन्मसँ अहाँकेँ छी 
प्रियतम बना तँ लिअ 

सभकेँ छोरने छी हम 
हृदयमे बसा तँ लिअ 

नै हमरा बिसरल छी 
ई हमरो जता तँ लिअ 

आब दिन बीते नै राति 
मरबसँ बचा तँ लिअ 

जीनै सकी बिनु अहाँकेँ
नै हमरा कना तँ लिअ 

ई नोर विरहकेँ अछि 
मिलनकेँ बना तँ लिअ 

सुगँधा अहाँ 'मनु'केँ छी  
ई सभकेँ बता  तँ लिअ   

(सरल वार्णिक बहर, वर्ण-९ )
जगदानन्द झा 'मनु'


वासंती गीत



कोइली कुहू -कुहू कुहुके हो रामा वन उपवन में 
नव किसलय सँ गाछ लागल अछि
मंजरि गम -गम गमकि रहल अछि
रंग बिरंगक फुल गाछ में 
प्रकृति कयल श्रृंगार हो रामा वन उपवन में ........
टिकुला सँ अछि झुकि गेल मंजरि 
नेना सब हर्षित अछि घर -घर 
गाछ -गाछ  पर विरहिणी कोइली 
कुहू -कुहू पिया कय बजाबै हो रामा वन उपवन में ....
श्वेतवसन कचनार पहिरी कय 
भ्रमर आंखि केर काजर बनि कय 
कामदेव क लजा रहल अछि
बढ़वय रूप हज़ार हो रामा वन उपवन में .....
महुआ  गम -गम गमकि रहल अछि
नेना चहुँदिसि दौरि रहल अछि
डाली -झोरी मं अछि महुआ 
गाबय चैत बहार हो रामा वन उपवन में ......

प्रजा आ तंत्र


लोहा सँ लोहा कटे अछि
विष काटै अछि विष कें,
मुदा भ्रष्ट सँ कहाँ उखड़े अछि
भ्रष्टाचारक ओइद ...?
निज स्वार्थ हेतु आश्वासन सँ
सागर में सेतु बना दै अछि,
रामक दूत स्वयं बनि सब
मर्यादा कें दर्शाबे अछि,
जनमत केर हार पहिर क ओ
रावणदरबार सजाबे अछि,
जौं करब विरोध त शंकर बनि
ओ तेसर नेत्र देखाबे अछि,
थिक प्रजातंत्र तें रावणों क
भेटल अछि समता केर अधिकार,
हमरे सबहिक शोणितपोषित
थिक प्रजातंत्रक सरकार.....

-अंजनी कुमार वर्मा "दाऊजी"