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मंगलवार, 7 फ़रवरी 2012

कोसी




हिमगिरी के आँचर सँ ससैर,
मिथिला केर माटि म पसैर
दुहु कूल बनल सिकटाक ढेर,
पसरल अछी झौआ कास पटेर
मरू प्रान्त बनल कोसी कछार,
निस्सिम बनल महिमा अपार
सावन भादो केर विकराल रूप,
पाबि अहाँ यौवन अनूप
उन्मत्त मन ,मदमस्त चालि,
भयभीत भेल मानव बेहाल
कि गाम-घर,कि फसल-खेत,
कि बंजर भू ,लय छि समेट
प्रलयलीन छि अविराम,
मानव बुद्धि नहीं करय काम
कतय कखन टूटे पहाड़,
भीषण गर्जन अछी आर-पार
तहियो हम सब संतोष राखि,
कर्तव्यलीन भेल दिन-राति
वर्षा बीतल हर्षित किसान,
खेती म लागल गाम-गाम
लहलहाइत खेत देखै किसान,
कोसी मैया कए शत-शत प्रणाम .......
- अंजनी कुमार वर्मा


गीत @प्रभात राय भट्ट

                 गीत  
यौ  पिया मारु नै जुल्मी नजरिया
की लच लच लचकय मोर कमरिया //२ मुखड़ा

हमर  मोन  नै बह्काबू यौ पिया
रखु अहां अपना दिल पर काबू
कोमल कोमल अंग की मोर बाली उमरिया
थर थर कापे देह की धक् धक् धरके जिया

ऐ धनी लचकाबू नै पतरकी कमरिया
की मोन भेल जैय हमर बाबरिया
देख अहाँक सोरह वसंतक चढ़ल जवानी
धनी बहकल जैय हमरो  जुवानी

यौ पिया हम सभटा बात बुझैतछि
हमरा संग अहां की की कS  र चाहैतछि
छोड़ी दिय ने आँचर पिया
की धक् धक् धर्कैय हमर जिया

एखन नै जाऊ सजनी छोड़ी कें
हमर मोनक उमंग झकझोरी कें
ये गोरी आब एतेक नै नखरा धरु
की झट सं प्रेमक मिलन करू

रचनाकार:-प्रभात राय भट्ट

सोमवार, 6 फ़रवरी 2012

MAITHILI KAVYA: MAITHILI STRUCTURE

MAITHILI KAVYA: MAITHILI STRUCTURE: II. STRUCTURE OF THE LANGUAGE 2.1. Segmental phonemes: Maithili has 47 segmental phonemes or distinctive minimal speech sounds as sh...

गजल


अहाँ केँ हमर इ करेज बिसरत कोना।
छवि बसल मोन मे आब झहरत कोना।

हवा सेहो सुगंधक लेल तऽ जरूरी,
बिन हवा फूलक सुगंध पसरत कोना।

अहीं टा नै, इ दुनिया छै पियासल यौ,
बिन बजेने इ चान घर उतरत कोना।

जवानी होइ ए नाव बिन पतवारक,
कहू पतवारक बिना इ सम्हरत कोना।

हमर मोन ककरो लेल पजरै नै ए,
बनल छै पाथर करेज पजरत कोना।
मफाईलुन (ह्रस्व-दीर्घ-दीर्घ-दीर्घ) ३ बेर प्रत्येक पाँति मे।

हर-हर-खट-खट! फुसियांही के मेल! :-)

हर-हर-खट-खट! फुसियांही के मेल! ;)

बात हर्ख के ओ होयत जे अपन मूल सँ निकलत!
अपन संस्कृतिके ऊपर दुनिया के जे प्रेरित करत!
ओ कि जे बस देखादेखी दोसरक नंगटइ सिखलहुँ!
नारीके मर्यादा के बाजार में आम निलामी कयलहुँ!

एहनो नहि जे आधुनिकता के धार में नहि छै बहब!
कोना आइ इन्टरनेट के माध्यम बात कहलहुँ कहब!
अक्सर बेसीकाल मिथिला राज्य बिहार सँ अलगै छै!
तेलांगाना आ छत्तीसगढक तर्ज पर उतारय नकल छै!

देखियौ छुद्र राजनीति - इतिहासे के नोंचत आ पटकत!
अपना दम पर एको कोनियां काउनो नहि आबै फटकत!
बड़का बोली दम्भ सऽ भरल ब्राह्मण के छै झाड़ैत-मारैत!
ई जनितो जे मिथिला सदिखन ब्राह्मणहि हाथे झबरत!

कतबू करतै राजनीति कि चलतै एहि धरती पर ओकर!
एहि धरतीपर एकहि गप छै धर्म के सार हरदम ऊपर!
ई थीक तांत्रिक मिथिला भूमि एहिठाम उपजय विदेह!
याज्ञवल्क्य आ बाल्मीकि सम्‌ त्यागी-तपी निःसंदेह!

नाम उच्च आ कान बुच्च के तर्ज पर खाली चमचम!
पाउडर फाड़ि बनाबय दही तहि पर भोजक कोन दम!
पोखैर गाछी सभटा बिकेलैय आब कि बचलौ डीह टा!
ताहू पर छौ नजैर गड़ल रे हरासंख कोढिया जैनपिट्टा!

सम्हर-सम्हर कर सत्यक लेखा जुनि जोखे झूठे ढेपा!
तौल-बनियां-तौल-भैर राति तों तौल ले अगिलो खेपा!
जातिवादी नारा के बल सऽ किछु नहि हेतौ रे मूढकूप!
आइयो दुनियाँ सीतारामके प्रतापे भजि ले वैह सुरभूप!

हरिः हरः!
रचना:-
प्रवीन नारायण चौधरी

गजल@प्रभात राय भट्ट


                                       गजल
चंचल मोनक भीतर परम चैतन्य उर्जा सुषुप्त भेल अछि 
मोह लोभ क्रोध रिस रागक तेज सं आत्मा सुषुप्त भेल अछि

दुष्ट  मनुख आतुर अछि करैए लेल मनुखक सोनित पान
दानवीय प्रबृति केर दम्भ सं मानव रूप विलुप्त भेल अछि

जन्मलैत छलहूँ बालेश्वर, कुमारी कन्या पूजैत छल संसार
आयु बढ़ैत सभ सुमति बिसारि कुमति संग गुप्त भेल अछि

स्वार्थलिप्सा केर आसक्त मनुख जानी सकल नहीं जीवन तत्व
परालौकिक परमानन्द बिसारि सूरा सुंदरी में लिप्त भेल अछि

दुर्जन बनल संत चरित्रहीन महंथ बदलैत ढोंगी रूप
अकर्मनिष्ठक कुकर्म सं गुण शील विवेक सुषुप्त भेल अछि
....................वर्ण-२४......................................
रचनाकार:-प्रभात राय भट्ट

कविता-हम एहन किएक छी ?

हम एहन किएक छी ?
माटि-पानि छोरि कए  
जाति-पाति पर लडैत किएक छी ?
हम एहन किएक छी ?

आएल कियो हाँकि लेलक
जाति-पाति पर बँटि देलक 
ऊँच-निचकेँ  झगरा में 
अपन विकास छोरि देलहुँ 
हम एहन किएक छी ?

के  छी अगरा
के छी पछरा 
सभ  मिथिलाक संतान छी 
फोरि कपार देखु  तँ   
सबहक सोनित एके छी 
हम एहन किएक छी ?

मुठ्ठी भरि लोक 
अपन स्वारथक कारणे
अपना सभकेँ 
तोर रहल अछि 
मोर रहल अछि 
जाति पातिमे ओझरा कए  
मिथिलाक विकाश  रोकि रहल अछि 

धरतिकेँ  कोनो जाति है छैक ?
मएक  कोनो जाति है छैक ?
तँ    हम सब सन्तान
बटेलौंह कोना ?
हम एहन किएक छी ?

आबो हम सँकल्प करी 
जाति-पाति पर नहि लरी 
अपन मिथला हमहि संभारब 
सप्पत मात्र एतबे करी  
हम एहन किएक छी ?
***जगदानन्द झा 'मनु'  

रविवार, 5 फ़रवरी 2012


गजल@प्रभात राय भट्ट

              गजल:-
एकटा स्वपनपरी हाथ लेने गुलाब छै
चन्द्रमा सन मुह पर लगौने नकाब छै
 
रौशनी नुकाबी से नकाबक ऑकाद कहाँ 
पारदर्शी चेहरा पर धेन आफताब छै
 
बिजलीक छटा सावन भादवक घटा छै
सोरह वसंतक जोवन पिने सराब छै
 
मदिरा में कहाँ जे हुनक अधर में मात
मातल जोवन रस छलकौने सराब छै
 
हुनक नयन मातली लगैछ मधुशाला
ठोरक पियाला में ओ जाम धेन वेताब छै
 
जाम पिबैलेल कतेको दीवाना बेहाल छै
रोमियो मजनू सब हाथ लेने गुलाब छै
 
हुनक जोवंक महफिल राग सजल छै
ओ श्रिंगार रासक गजल नेने किताब छै
..................वर्ण १६ ....................
रचनाकार:-प्रभात राय भट्ट

माछ आ मिथिला




माछ, माछ, माछ! मिथिलाके माछो महान्‌!
मिथिला महान्‌ - मिथिला महिमा महान्‌,
माछो महान्‌ - मखान आ पानो महान्‌,
माछ..माछ..माछ! मिथिलाके माछो महान्‌!

इचना के झोरमें ललका मेर्चाइ,
मारा के झोरमें सुरसुर मेर्चाइ,
चाहे जलखैय या हो खाना... होऽऽऽ!
छूटबैय सर्दी जहान! :)
माछ, माछ, माछ...
मिथिलाके माछो महान्‌!

गैंचाके काँटो बीचहि टा में,
नेनी के काँटो सगरो पसरल,
सदिखन काँटो कऽ के निकालय... होऽऽऽ!
स्वादमें सभटा महान!
माछ, माछ, माछ,
मिथिलाके माछो महान्‌!

आउ चलू देखी पोखैर में मच्छड़...
आइ निकलतै भून्नो के पच्चड़...
रौह, भाकुर, नेनी कऽ के पूछतैय... होऽऽऽ...
महाजाल फंसतय सभ माछ...
माछ..माछ.. माछ..
मिथिलाके माछो महान्‌!

बंसीमें देखू पोठी बरसय,
गरचुन्नी आ सरबचबा फंसय,
बड़का बंसीमें आँटाके बोर यौ... होऽऽ
से फंसबैय रौह माछ,
माछ..माछ..माछ...
मिथिलाके माछो महान्‌!

जतय माछ होइ लोक ततय हुलकल
माछ हाट के रूप रहय लहकल
एम्हर तौलह ओम्हर तौलह ... होऽऽऽ
सरिसो रैंची संग जान...
माछ, माछ, माछ,
मिथिलाके माछो महान्‌!

मिथिलाके पोखैर कादो भोजन
ताहि माछो के सुधरल जीवन
खायवाला सभ पेटहि पाछू ... होऽऽऽऽ
काजक बेर उड़य प्राण...
माछ, माछ, माछ...
मिथिलाके माछो महान्‌!

सुरसुर काका के माछक मुड़ा...
प्रभुजी काका के पेटीके हुड़ा...
सभमिलि बैसल चूसि-चूसि मारैथ होऽऽ
सगरो माछ के मजान...
माछ, माछ, माछ...
मिथिलाके माछो महान्‌!

प्रयागमें छैक मैथिल पंडा
सभ के अपन-अपन धंधा
पहिचान वास्ते होइछै जे झंडा... होऽऽ
ताहू में छै मिथिला माछ...
माछ, माछ, माछ,
मिथिलाके माछो महान्‌!

गोलही काँटी छही आ सुहा
सिंघी मांगूर बामी टेंगरा
जानि हेरायल कतय ई मिथिला.. होऽऽ
आन्ध्रा के भेलय तूफान...
माछ, माछ, माछ...
मिथिलाके माछो महान्‌!

हरिः हरः!
रचना:-
प्रवीन नारायण चौधरी

शनिवार, 4 फ़रवरी 2012

तोरा बिन सब सून!


तोरा बिन सब सून!

ऊपर निला अम्बर, आइ कारी तों बनि जो!
घुमि-घुमि पूरा दुनिया तों एतय बरिस जो!!

ऐ जोड़ा बरद नव फार लागल हरो जोति जो!
अंघौश-मंघौश फेंकि खेत में तों चौकियो चलो!

गे अनमोलिया! गामवाली बारी सँ बिहैनो अनो!
संगमें दुइ-चारि बोनिहरनी के रोपनी लेल बजो!

रोपे मोंन सँ मिलि गाबि-गाबि जे शीश बड़ फरो!
हर अन्नमें जीवन धनके ईश आशीष कूटि भरो!

गेल दिन दस तँ आबि फेरो खेतो कमो - कमठो!
अर्जाल-खर्जाल सँ खेत भरत तऽ अन्न कि फरो!

प्रिय मेघा तों बस समय-समय एतबी के बरसो!
जे धान हमर खेतक लहरय हरियाली से चमको!

हे शीतल शीत तों शीशमें शशि-अमृत रसके भरो!
जे चरित मोरा तोरा मीत सन दुनिया के सुधरो!

रवि दिन-दिन बल ज्योति सँ शक्ति शुभ रंग भरो!
निज नयन जुड़य इ हेरि-हेरि हरियर हरि हर करो!

हेमन्त आबि के आश धरी स्वच्छन्द नभमें तरो!
गम-गम गमकय उमंग सँ बस एहने आश बंधो!

जौँ तोँ नहि तऽ हम कि - कि दुनिया वा किछुओ!
बस तोरहि सँ सभ जीव अछि आ जान भी जियो!

बिन कृषि कोनो नहि काज के सुर ताल बने कहियो!
भले आन किछु के बाद में समुचित दरकार बनो!

हरिः हरः!

रचना:-
प्रवीन नारायण चौधरी

गजल


अहाँ हँसैत रहि हमरा देखैत रहि
अहाँके नव-नव गीत सुनाबैत रहि

अहाँ रुसल रहि हम मनाबैत रहि
गुणगान अहाँकेँ  सगरो गाबैत रहि

अहाँ राति भरि निचैन सँ सुतल रहि
जागि उठिते अहाँ केँ हम देखैत रहि

अहाँ केखनो हँसियो सँ पाछु जे देखब
ताहिखन हम जीबैत नै मरैत रहि

हमर जिबन अहाँ लेल बनल अछि
जिबन भरि अहींके लेल जिबैत रहि 

(सरल वार्णिक बहर, वर्ण-१५)
जगदानन्द झा 'मनु'  : गजल संख्या- -१६

शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2012

गजल


अन्हारक की सुख बुझथिन इ इजोतक गाम मे सदिखन रहै वाला।
दुखे केँ सुख बना लेलक करेजक घातक दुख चुपे सहै वाला।

जमानाक नजरिक खिस्सा बनल ए आब तऽ करेज हमर सुनू यौ,
हुनकर नजरि कहाँ देखलक हमर करेजक इ शोणित बहै वाला।

कहै छै लाजक नुआ मे मुँह नुकौने रहल दुनियाक डर सँ अपन,
इ रीत अछि दुनियाक, तऽ एतऽ किछ सँ किछ कहबे करतै कहै वाला।

करू नै प्रकट अपन सिनेह मोनक, यैह हमरा ओ कहैत रहल,
किया हम राखब उठा केँ समाजक जर्जर रिवाज इ ढहै वाला।

अहाँ डेग अपन उठेबे करब कहियो हमर मोनक दुआरि दिसक,
बहुत "ओम"क बहल नोर, दुखक गरम धार मे गाम इ दहै वाला।
मफाईलुन (ह्रस्व-दीर्घ-दीर्घ-दीर्घ) ५ बेर प्रत्येक पाँति मे।

गे में कोरा में उठा ले हमरा ,ह्रदय स लगा ले आयल छि तोरा शरण में चरण स लगा ले

गे में कोरा में उठा ले हमरा ,ह्रदय स लगा ले 
आयल छि तोरा शरण में चरण स लगा ले 
गे में ........................................................
हमहू तोरे सखा छि , भाटैकी हम गेल छि 
माया आ लोभ में , सहती हम गेल छि 
गे में अंचार में नुका ले हमरा नयन में समां ले 
गे में ............................................................

माँ नै कुमाता होई छई, हमही कपूत छि 
हमरा विसरी नै ऐना , हमहू तोरे पूत छी
गे में दया तों देखा दे हमरा दुबई स बचा ले 
गे में ............................................................
दस हाथ बाली मैया , कते के बचेलें 
हमरा बेर में जननी नजरी फेर लेलें 
गे में एक बेर फेर अपना करेजा स लगा ले 
गे में .........................................................
डेगे डेगे दुनियां हमरा, ठोकर मरईये
आंखी स नोर झहरे, रोकलो ने जाईए 
गे में टुटल आनंद के तों आश फेर बन्हा दे 
गे में ........................................................
रचना कर आनंद झा 
नोट :कृपया एही कविता के कोनो अंश या कविता हमरा स बिना पूछने उपयोग  नै करी अन्यथा क़ानूनी समाश्या के झेले पारी सके अछि

गजल

हमर अहाँक संग भेल
सवय संसार तंग भेल

रहल शराब निसा नहि
एकर कतेक रंग भेल

परल मचान पर छलौं
अपन चुमान संग भेल

अपन पबैत संग छलौं
सगर कपार चंग भेल

भरल एतेक रंग देख
हमर करेज दंग भेल

(सरल वार्णिक बहर, वर्ण-१२)
जगदानन्द झा 'मनु'  :  गजल संख्या-१५ 

इ जमीन अछि गांव के

इ जमीन अछि गांव के
गौर से देखु एकरा और प्यार से निहाइर लिय
आराम से बैसु अतए पल दू पल बिता लिय
सुध कनी ल लिय अतए पर एकटा हरियर घाव के
कि इ जमीन अछि गांव के , हं इ जमीन अछि गांव के ......

कुल कुनबा और कुटुम के अर्थ बेमानी भेल
दादा क्का हरा गेल सब बिसैर गेल बडकी मैयाँ
गांव भइर में रिश्ता के केहेन डोर में छल बान्हल
जाति के भेद रिशता के तराजू छल साधल
याद अछि अखन तक धीमर के इनार के छांह के .....
कि इ जमीन अछि गांव के , हं इ जमीन अछि गांव के ......

आपस के संबंध के चौंतार पर बैएस क
छल सब चौरा बहुते रौब स किछु अऐंठ क
छल नै पैसा बहुत और नय अधिक सामान छल
पर हमर ओही गांव में सबके बहुत सम्मान छल
मांइग क कपडा बनल बरयति के दादा के ...
कि इ जमीन अछि गांव के , हं इ जमीन अछि गांव के ......

गांव के जखन स शहर में आन जान भ गेल
गांव के सब मनुख आब खाना खाना भ गेल
सई बीघा ke मालिक गांव के अपने त छल
पगार के चक्कर मे छेदी शहर में अछि हरा गेल
बात करय के अछि हमरा ओय दौर के ठराव के ...
कि इ जमीन अछि गांव के , हं इ जमीन अछि गांव के ......