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गुरुवार, 12 जुलाई 2012

मसोमात


चारि बरखक बाद, गामक माटि-पानि जेँ देह में बहि रहल अछि हिलकोर मारलक  तँ सभ काज-बाज छोरि नोकरी सँ सात दिनक छुट्टी लय कए गाम बिदा भेलहुँ | जेना-जेना गामक दुरी  कम भेल जए तेना-तेना हृदयक बेग आओर गामक माटिक गंध दुनू तेज भेल जए | ट्रेन आ बसक यात्रा क्रमसँ  खत्म भेला बाद गामक चौक सँ पएरे गाम हेतु बिदा भेलहुँ जेकर दुरी करीब एक किलोमीटर रहै | ओनाहितो असगर, समानक नाम पर कन्हा पर एकटा बैग आ दोसर गाम देखक लौलसा, रिक्सा छोरि पएरे चलैक लेल प्रेरित कएलक |
अपन  टोल में प्रबेश करिते सभसँ पहिले छोटकी काकी पर नजैर परल | ओना गामक सम्बन्ध में ओ हमर बाबी लगैत छलथि मुदा गाम में सभ कियो हुनका छोटकी काकी कहि सम्बोधित करैत छलनि तइँ हमहुँ हुनका छोटकी   काकी कहैत छलियैन | उज्जर पढिया सारी पहीरने आँचर सँ माथ आ एकटा खूट सँ नाक तक मुह झपने | रस्ता सँ आँगन जाईत  घरक कोन्टा पर ओहो हमरा देखलथि, जा हुनका गोर लागि आशीर्वाद लेलहुँ |
"केँ... बच्चू" छोटकी काकी केँ मुह सँ खडखराइत अबाज निकलल
"हाँ काकी "
"कहीया एलअ"
"एखन आबिए रहल छी काकी "
"एसगरे एलअ हेँ "
"हाँ "
"आ दिल्ली में कनियाँ, धिया-पुता सब ठीक"
"अहाँक आशीर्वाद सँ सभ कुशल-मंगल, अहाँक की समाचार नीके छी ? "
ई प्रश्न सुनिते हुनका आँखि सँ नोर झहरअ लगलनि नोर रोकैक असफल प्रयास करैत -" कि बौआ, एहि मसोमात केँ की नीक आ की बेजए, बेजए तँ ओहि दिन भय गेलहुँ जहिया अहाँक काका नबाडिये में छोरि स्वर्ग चलि गेला, आब तँ एहि बुढ़ारी में कियोक धूओ नहि देखए चाहैए, देखला सँ सभ केँ अमंगल होएत छैक | नहि जानि बिधाता एहि अभागनि केँ आओर कतेक ओरदा देने छथि | आई महीनों केँ बाद ककरो सँ दूमुह गप्प केलहुँ आ कियो हमरो द पुछलक ....."
ई  कहैत काकी अपन नोर केँ नुकबैत कोन्टा सँ अँगना दीस चलि गेली आ हमहुँ गामक जिनगीक, बिधबा, मसोमात, बुढ़ारी सोचैत आगु  बढि गेलहुँ |  

*****
जगदानन्द झा 'मनु'
   

मंगलवार, 10 जुलाई 2012

गजल



वेदरदिया नहि दरदिया जानै हमर 
टाका सँ जुल्मी प्रेम केँ गानै हमर 

सदिखन जरैए मन विरह केँ आगि में 
तैयो पिया नहि किछु दरद जानै हमर 

साउन बितल घुरियो कँ नहि एला पिया 
नहि खीच हुनका  प्रेम ल'कँ आनै हमर    

बरखा खुबे बरिसय तँ  गरजय बदरबा 
छतिया दगध भेलै हिया कानै हमर 

बसला पिया 'मनु' दूर बड परदेश में 
झरकल हिया कनिको तँ  नहि मानै हमर 

(बहरे रजज, मात्राक्रम- २२१२)
जगदानन्द झा 'मनु'    :  गजल संख्या-६१ 

रविवार, 8 जुलाई 2012

नारिये,नारिक संतापक कारण छथि

जौं सोचि-विचारि निष्पक्ष मोन सँ मानथि
आ घुमा फिरा क सब तथ्य के देखथि 
त पैयती एहि कटु सच के मुंह बाबति
जे नारिये,नारिक संतापक कारण छथि

कतहूँ सासु त दियादिनी कत्तहूँ
कतहूँ भाउज त ननैद कत्तहूँ
जखने कनिको जे अवसर पाबथि
सब मिलि नवकनियाँ  के दबाबथि 

कनियाँक आंखि छोट आ नाक मोट 
घरक नारिये एहि सब पर करथि चोट
नहिं पुरुष के अहि सब सँ मतलब 
भोर-साँझ बस नारिये खोजति खोट

अहि विवाह में ई चाहि आ एतेक दहेज़ गनेबई
कनिया के त चारि बहिन बाप कोना द पैतई 
जौं सासुर में सार नै त सासुर के मोजर की
अप्पन नईहर खूब पियरगर दोसर जिबय-मरई 

हे मिथिलानी! छोडू ई सब आ बदलू अपना के
नारी भ क नहि कारण बनू नारी यातना के
अपना पर जे बीतल से सहलहूँ राखि भरोस   
मुदा तकर बदला नै तोडू ककरो सपना के

राजीव रंजन मिश्र 

गामक ओ भंगिमा

लहलहाईत खेत आ,
खरिहानक ओ रंगिमा!
ओ मनोरम दृश्य,
आ सूरजक ओ लालिमा!
मोन के लोभा जाईत अछि ,
हमर गामक ओ भंगिमा!!

चारू तरफ खिलखिलाईत,
मदमस्त फूलक ओ छटा!
ताजगी समां के दईत,
मेघक ओ कारी घटा!  
मोन के  दईत अछि रमा,
हमर गामक ओ भंगिमा!!

चिंता स कोसों दूर,
आ प्रपंचक नै कोनो चिन्ह अछि,
शहरक प्रदूषित हवा सँ,
सब तरहे ओ भिन्न अछि!
देह में फुर्ती  दईत अछि जमा,
हमर गामक ओ भंगिमा!!

प्रीतक उताहुल लोक आ,
वात्सल्य हुनक नेह केर!
मोन के करैत अछि विह्वल,
अमोल भेंट हुनक स्नेह केर!
अछि जीवय के सदिखन प्रेरणा,
हमर गामक ओ भंगिमा!!

राजीव रंजन मिश्र 

आगु डेग बढाबी

आयल छी अवधारि क,किछु करबाक टा अछि!
रोडा त बड्ड अछि मुदा,नहि घबरैबाक अछि!!
संग जौं रहल सबहक,भ जैबे टा करतय!
मोन बेर-बेर कहति अछि,ई होयबे टा करतय!!

नहि जानि किएक, बड्ड असमंजस में परल छी!
कतय सँ आर कोना,कथी शुरू करी हम!!
आबु सब मिल बैसी,आर करी पुनर्विचार!
नव स्फूर्ति आर तेज़क,होबै पुनीत संचार!!

गत काल्हि तक जे कयलौं,ठीके छल सब ओहो!
जुनि परी अहि प्रपंच में,ई किएक,ओना किएक भेल!!
जे भेल,जे कयलौ सब ठीक,आगु डेग बढाबी!
दृढ संकल्पित भ फेर सँ,जन-गन के संग लाबी!!
संग्रामी अभिनन्दन के संगहि,संग्रामी एक शपथ ली!
पूर्वाग्रह के छोरि,निष्कपट भ,आबु किछु काज करी!!
किछु बदली हम सब,किछु समय बदलतय,आ सबटा भ जेतय!
मोन बेर-बेर कहति अछि,ई होयबे टा करतय!!
---राजीव रंजन मिश्रा

आश जे लागल अछि

संतप्त धरातल अछि  
दुष्कृति स पाटल अछि 
मनुख बिसारि स्वरुप 
अनेड़ो फाटल अछि 
तइयो नै जानि किया 
ई मोन त पागल अछि
बदलत ई सब एक दिन 
ई आश जे लागल अछि

निःशब्द ई धरती अछि 
खेत पथार जे परती अछि 
बिलटल उपजा बारी
रौदी जे छायल अछि 
तइयो नै जानि किया 
ई मोन त पागल अछि
उपजत  ई सब एक दिन 
ई आश जे लागल अछि

गाछ बृक्ष मूड़झायल अछि 
बारी झाड़ी भकुआयल अछि
देख मनुख केर चालि-प्रकृति 
विधनो के मोन घायल अछि 
तइयो नै जानि किया 
ई मोन त पागल अछि
पलटत ई सब एक दिन 
ई आश जे लागल अछि

आशान्वित छी सदिखन
सम्हरत ई जनजीवन 
रहला जौं दैव सहाय
पुरत सब आश फूलाय
विस्वास त जागल अछि 
तैं मोन त पागल अछि
सुधरत ई सब एक दिन 
ई आश त लागल अछि

राजीव रंजन मिश्र 

शनिवार, 7 जुलाई 2012

गजल

जँ कहीयो हमरा प्रेम केलहुँ तँ ओकर सप्पत मानियो  जाउ 
कुटि-कुटि कँ हम प्रेम केने छी हमर मनोरथ बुझियो जाउ 

सभ तरहे हम अहीँ केँ बुझलौं अपन अहाँ केँ मानलौं हम 
मोनक हाल बनल की हमर आबि  कनीक अहाँ सुनियो जाउ 

छन-छन हमर बीतैए कोना कँ बिन अहाँक दुख बुझत केँ 
नामे केँ हम जीबैत छी हमर जीवन केँ मुइल बुझियो जाउ 

हाड माँस गलि गेल हमर सभटा प्राण बचा कए रखने छी 
सहि नै सकै छी विरह आगि 'मनु' घुरि अहाँ कनी आबियो जाउ 

(सरल वार्णिक बहर, वर्ण-२४)
जगदानन्द झा 'मनु'  

शुक्रवार, 6 जुलाई 2012

हाइकू



करिया मेघ
धऽ कोण पुवरिया
डेरा रहल ।

बिज्लोका लोकै 
ठनका ठनकल 
साहौर गाछ ।

हुनका लेल
की चिंता जिनकर 
कोठाक घर ।

जकरा छैक 
सड़ल एकचारी 
धुक-धुक्की छै । 

नंगटे नाचै
सभ नेना भुटका 
अलगे मस्ती ।

*पंकज चौधरी (नवलश्री) *
< ०६.०७.२०१२ >

हाइकू



करिया मेघ
धऽ कोण पुवरिया
डेरा रहल ।

बिज्लोका लोकै 
ठनका ठनकल 
साहौर गाछ ।

हुनका लेल
की चिंता जिनकर 
कोठाक घर ।

जकरा छैक 
सड़ल एकचारी 
धुक-धुक्की छै । 

नंगटे नाचै
सभ नेना भुटका 
अलगे मस्ती ।

*पंकज चौधरी (नवलश्री) *
< ०६.०७.२०१२ >

हाइकू



तप्पत माटि
तड़पि रहल छै 
बरखा लेल । 

बुन्नी झहरै
सगरो पसरल
माटिक गंध ।

गरदा-बुन्नी
दुनु संग सानल
माटिक लड्डू ।

देखू देखिते
पोखरि बनि गेल
खेत-पथार ।

डोका- कांकौड़
लऽ लऽ छपकुनिया
बीछय सभ ।

धानक बीया
उजरल बिड़ार
खेत रोपेतै ।

खूब उपजा
भरि जैत बखारी
रीन-उरीन ।

ककरो लेखे
देवक वरदान
हेतैक मुदा !

ककरो घर
गर-गर चूबय
सड़ल चार !

*पंकज चौधरी (नवलश्री) *
< ०६.०७.२०१२ >

गुरुवार, 5 जुलाई 2012

"ई नोर छै गरीबी के" - विहनि कथा


दक्षिण-पूब भर सँ अटूट मेघ घेरैत देखि बुधनी पूवैर बाधक एकपेरिया बाट पर नमहर-नमहर डेग झटकारने घर दिश विदा भेल. माथ पर घासक छिट्टा, कांख तऽर थोड़ सुखैल राहटक जारैन आ खोइंछ में नुका धेने छल सात-आठ टा रस्फट्टू आम जे अबैत काल बाट में बिछने छल अल्हुआ वला खेत लगका कलकतिया आमक गाछ तर सँ.. गाम परहक चिंता जान खेने जा रहल छलै. सात वरखक बेटा बंटी के घरे पर छोड़ि आयल छल. ओना ओ तऽ छाल छोड़ेने छल बाध अबै लेल मुदा रौद तेहन ने चंडाल उगल छलैक जे बुधनी के मोन नहि मानलकै आ ओकरा सुगिया काकी अंगना छोडि आयल छल. बुधनी के सभ सँ बेशी चिंता अहि गप्पक छलै जे जों ओकरा घर पर पहुंचै सँ पहिने वरखा शुरू भ गेलै तऽ जुलुम भऽ जेतै. चिपरी सभ बाहरे में सुखाइत छलै आ अंगना में खुद्दी सेहो पसारल छलै...आ हाँ चार पर बिरियो तऽ देने छलै बना कऽ सुखाई लेल, सभटा चौपट भऽ जेतै.. विचारक अहि उथल-पुथल में अगुताइल भागल जैत छल घर दिश.

घर पहुँचते देरी छिट्टा अंगना में पटकि पहिने बंटी के शोर पारलक. ता धरि तऽ एकदम गुप्प अन्हार भऽ गेल छलैक आ जोड़-जोड़ सँ बिजलोका लोकय लागल छलै. संगहिं मेघ सेहो ढन-ढन गरज लागल छलै. बुधनी हडबडा कऽ सभटा काज करय लागल. आ बंटी... ओहो पाछू कियैक रहत..! ओहो छोटकी पथिया में चिपरी समेट कऽ उठाब लागल. कने कालक बाद खूब जोड़ सँ वरखा शुरू भऽ गेलै. बुधनी बंटी के लऽ कऽ दौड़ कऽ घर दिश भागल...मुदा ताहि सँ की..? घर की कोनो अंगना सँ नीक छलै..! सड़ल खऽर... मोनो नहि जेऽ कैऽ वरख भऽ गेल छलै छड़वेला. कोरो-बाती सेहो सड़ल-गलल. ओहिना टुक-टुक मेघ देखाइत...! राति कऽ बंटी घरे में बैसले-बैसल चंदा मामा सँ बतिया लैत छल आ तरेगन सँ खूब लुका-छिपी खेलैत छल. सौंसे घर में गर-गर पाइन चुबैत. कनिए काल में घर पाइन सँ भरि कऽ डबरा भऽ गेल. बुधनी छिपिया लऽ पाइन उपछ लागल. ओ पाइन उपछैत-उपछैत अप्सियांत भेल छल. आ बंटी.... ओकरा लेखे केहनो सन नहि....आ रहबे कियैक करतैक...? ओ तऽ कागतक नाह बना घर में अई कोन सँ ओई कोन धरि बहा कऽ आनंद सँ विभोर भऽ रहल छल.

कने कालक पश्चात जहन खेलाइत-खेलाइत बंटी थाकि गेल तऽ नाह के ओहिना पाइने में हेलैत छोडि बुधनी के कोरा में जा बैसल आ बाजल माय गे भूख लागल अछि, किछु खाई लेल दे ने...! बुधनी एक दू बेर तऽ अन्ठेलक मुदा जहन बंटी छाल छोड़बय लागल तऽ बुधनी चिनवार पर बासन सभ के उनटा-पुन्टा कऽ देख लागल. किछु नहि भेटलैक...किछु रहतैक तहन ने भेटतै. मुदा बंटी कियैक मानत..आ फेर जे माइन गेल से नन्ने की..? बुधनी अकबकैल ओकर मूंह तकैत छल तखने कोठिक गोड़ा पर राखल मरुआ रोटिक एकटा टुकड़ी पर ओकर नजरि गेलै. बुधनी मोन पारय लागल जे कहिया के छियैक.... हाँ मोन पड़ल परसुए भोर में तऽ बनने छलियैक.. बुधनी ओ मरुआ रोटी पर थोड नून आ सुखायल अचार धऽ बंटी के दऽ देलकै. बंटी मगन भऽ खाय लागल. नेनाक चंचल मोन तऽ देखू…खाइत-खाइत बंटी बाजल माय गेऽ दू टुकड़ी पियाउज दे ने..! बुधनी सौंसे घर ढुरलक तऽ आधा टा पियाउज भेटलै.. ओ पियाउज सोहि बंटी के देबय लागल....!

बुधनिक आंखि में नोर भरि गेलै. बंटी माय के मुंह दिश तकलक तऽ बाजल…की भेलऊ माय कियैक कने छिही. नहि तऽ कहाँ कनैत छी हम. नहि-नहि फेर नोर कियैक बहि रहल छौ. मोन खराब छौ की.. माथ दुखाई छौ, हम जाइंत दियौ...? नहि बउआ किछु नहि भेलै हमरा. हमरा कियैक माथ दुखैत…? ई सुनि बंटी चहकि कऽ बाजल... ओहो आब बुझलियौ तों पियाउज कटलहिन्ह हैं तैं तोरा आंखि सँ नोर बहैत छौ - छैऽ नेऽ..? बुधनी मोने-मोन सोचे लागल जे बउया तोड़ा कोना कहियौ जेऽ ई नोर माथ दुखेबाक कारणे आ की पियाउज कटबाक कारणे नहि बहि रहल अछि.... इ नोर...इ नोर तऽ गरीबी केर छैक. मुदा बुधनी सभटा दर्द अपना मोन में समेटने विरोगे लोल कोंचियाबैत आ जबरदस्तिये कनी मुस्कियैत बाजल "हाँ बउया पियाउज कटलियै तहि दुआरे नोर बहय लागल...! बंटी मायक ई गप्प सुनि ठिठिया कऽ हंसल आ मरुआ-रोटी-नून-अचार पियाउजक टुकड़ी संगे खाय में मगन भऽ गेल. गाल पर नोरक सुखायल धार नेने बुधनी के ओकर नेनपनक सत्य आ सुन्दर छवि देखि अजीब सन संतोषक अनूभूति भऽ रहल छलय..!!!

***इति श्री***

< पंकज चौधरी (नवलश्री) >
< ०५.०७.२०१२ >

मंगलवार, 3 जुलाई 2012

मोनक व्यथा


किनका कहियौन  पतिएताकेँ
हमर मोनक व्यथा बुझताकेँ 

बंद पिंजराकेँ चीडै जेकाँ
दिन भरि हम फरफराईत छी 
जुनि बुझु हम नारी मिथिलाकेँ 
हम तँ   मकड जालमे ओझरेल छी 

दुनियाँकेँ तँ  बात नहि  पुछू 
कोना की केलक व्यबहार यौ 
जननीकेँ गर्भमे अबिते देखू 
बिधाता मुनलैन्ह केबार यौ 

मए  बाबू हमरे दूखसँ 
पिचा गेला जीवनक पहाड़मे 
नैन्हेंटासँ पैन्ख गेल काटल
उडियो नहि  पएलहुँ  संसारमे 

बाबूकेँ आँगुर छोडियो नहि   पएलहुँ   
पतीकेँ हाथ धराए गएलहुँ 
नहि  किछु बुझलहुँ  रीत  दुनियाँकेँ 
अपन किएक सभ बिसराए गएलहुँ  

नव  घर आँगन नव समाजमे
जल्दी कियो कोना अपनेता
दोख नहि  किछु हुनको छनि लेकिन 
हमरा किएक कियो बुझता 

घरसँ कहियो नहि  बाहर निकललहुँ  
ऊँच -नीचकेँ ज्ञान नहि  पएलहुँ  
अर्जित  छल नहि  बुद्धि-बिद्या किछु 
नैन्हेंटामे सासूर हम एलहुँ  

कोन अपराध जन्मेसँ कएलहुँ  
बाबू अहाँ अपन संग नहि  रखलहुँ  
नहि  पतिएलहुँ  हमरोमे जीवन 
मोटरी बुझि क ' दूर भगएलहुँ  

रहस्य




बाबा-बाबीक विवाहक चालीसम बर्खगांठ | दुनू गोटे अपन सम्पूर्ण परिवार केँ बिच घेरएल  बैसल | चारूकात एकटा खुशीक वातावरण बनल | सभ केँ मुह पर हँसी, खुशी आ प्रशन्ता झलकि रहल छल | बाबीक पंद्रह बरखक पोती, बाबीक गरदनि पर पाछू सँ लटकि कए झुलति पुछलक -"बाबी एकटा गप्प पुछू |'
बाबी -" हाँ पूछै"
पोती -"बाबा-बाबी हम अहाँ दुनू केँ कहियो झगडा करति नहि देखलहुँ, एकर की रहस्य छैक |"
बाबी लजाईत अपन पोती केँ कन्हा सँ उतारैत -"चल पगली, एकरा ई की फुरा गेलै |"
बाबीक छोटका बेटा -"नहि मए ई त ' हमरो बुझैक अछि, ओनाहितो हमर नव-नव विवाह भेलए ई मन्त्र त ' चाहबे करी |"
बाबी -" चल निर्लज, सब एक्के रंग भए गेलै, अपन बाबू सँ पूछै हुनका सब बुझल छनि |"
छोटका बेटा बाबू सँ -"हाँ बाबू अहीँ कहु न अपन सफल विवाहिक जीवनक रहस्य | हमहुँ अहाँ दुनू में कहियो झगडा नहि देखलहुँ, ई मन्त्र हमरो दिय न ' ( अपन कनियाँ दिस देख क') देखू ने निर्मल त ' सदिखन हमरा सँ लडिते रहैत अछि |"
बाबा, एकटा बड्डकाटा साँस लैत जेना अतीत केँ देखैक प्रयास कए रहल छथि | छोटका केँ माथ पर स्नेह सँ हाथ सहलाबैत बजला -"एकरा कियो झगडा कहैत छैक ? अहाँ दुनू में जे स्नेह अछि ओहि  में किछु नोक-झोंक भेनाई सेहो आवश्यक छैक | जेना भोजन में चटनी, जीवन में सब पक्ष केँ अपन-अपन महत्व छैक मुदा हाँ ई मात्र नोक-झोंक तक रहवा चाहि झगडा नहि, नहि त ' एहि सँ आगू जीवन नर्क भए जाईत छैक | पती पत्नीक  बिचक आपसी सम्बन्ध नीक अछि त ' स्वर्गक कोनो जरुरी नहि आ यदि सम्बन्ध नीक नहि अछि त ' नर्कक कोनो आवश्यकता नहि ओहि अवस्था में ई जीवने नर्क अछि |"
सभ कियो एकदम चूप एकाग्रता सँ हुनक गप्प सुनैत | चुप्पी केँ तोडैत  बाबा आगू बजलाह -"रहल हमर आ तोहर मए केँ बिचक सम्बन्ध त ' ई बहुत पुरान गप्प छैक, जखन हमर दुनू केँ विवाह भेल आ हम दुनू एक दोसर केँ पहिल बेर देखलहुँ तखने हम तोहर मए सँ वचन लेलहुँ जे जखन हमर मोन तमसे ' त ' ओ नहि तमसेती आ जखन हुनकर मोन तमसेतनि तखन हम नहि तमसाएब | बस ओ दिन आ आई तक हमरा दुनू केँ बिच नोक-झोंक भेल झगडा कहियो  नहि |"
*****
जगदानन्द झा 'मनु'

गजल


कोना कहू हम आई एतेक मजबूर किएक
प्रीतमक विछोड आई हमरा मंजूर किएक

हम तकैत रहिगेलौं नयन सं नयन मिला
छोड़ी हमरा चलिगेल प्रीतम निठुर किएक

दोष हुनक नै कोनो दोष अछि सभटा हमरे
आई बुझलौं हमरा में एतेक गुरुर किएक

ओ जान प्राण सं प्रेम करैत छलि हमरा सं
हम सदिखन रहलौं हुनका सं दूर किएक

हम परैख नहि सकलौं हुनक निश्च्छल प्रेम
आई बिछोड पीड़ा सं दिल हमर चूर किएक

आई हुनक डगर के हर मोड़ अछि अलग
हुनक जीनगी में बनब हम बबुर किएक

"प्रभात क "दिन भेल दुर्दिन प्रीतम अहाँ विनु
अहाँक सपना हम केलौं चकनाचूर किएक

वर्ण-१८
रचनाकार-प्रभात राय भट्ट  : गजल संख्या -५९

रविवार, 1 जुलाई 2012

गजल



कथिले अहाँ हमरा सं घुंघटा में मुह नुकौने छि गोरी
हम तं अहाँक दीवाना अहिंक दिल में बसौने छि गोरी

कने घुंघटा उठा दिय आ चान सनक मुह देखा दिय
मधुर मिलन केर वेला में किएक तरसौने छि गोरी

वित् जाएत अनमोल राति मिझ जाएत दिया के वाती
फेर सुहागराति अहाँ नखरा किएक देखौने छि गोरी

"प्रभात" के सब्र बान्ह आब टुटल जारहल अछि गोरी
लाजक चादर ओढ़ी हमरा किएक तडपौने छि गोरी

वर्ण-21.
रचनाकार- प्रभात राय भट्ट  : गजल संख्या -५८