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सोमवार, 6 फ़रवरी 2012


गजल@प्रभात राय भट्ट


                                       गजल
चंचल मोनक भीतर परम चैतन्य उर्जा सुषुप्त भेल अछि 
मोह लोभ क्रोध रिस रागक तेज सं आत्मा सुषुप्त भेल अछि

दुष्ट  मनुख आतुर अछि करैए लेल मनुखक सोनित पान
दानवीय प्रबृति केर दम्भ सं मानव रूप विलुप्त भेल अछि

जन्मलैत छलहूँ बालेश्वर, कुमारी कन्या पूजैत छल संसार
आयु बढ़ैत सभ सुमति बिसारि कुमति संग गुप्त भेल अछि

स्वार्थलिप्सा केर आसक्त मनुख जानी सकल नहीं जीवन तत्व
परालौकिक परमानन्द बिसारि सूरा सुंदरी में लिप्त भेल अछि

दुर्जन बनल संत चरित्रहीन महंथ बदलैत ढोंगी रूप
अकर्मनिष्ठक कुकर्म सं गुण शील विवेक सुषुप्त भेल अछि
....................वर्ण-२४......................................
रचनाकार:-प्रभात राय भट्ट

कविता-हम एहन किएक छी ?

हम एहन किएक छी ?
माटि-पानि छोरि कए  
जाति-पाति पर लडैत किएक छी ?
हम एहन किएक छी ?

आएल कियो हाँकि लेलक
जाति-पाति पर बँटि देलक 
ऊँच-निचकेँ  झगरा में 
अपन विकास छोरि देलहुँ 
हम एहन किएक छी ?

के  छी अगरा
के छी पछरा 
सभ  मिथिलाक संतान छी 
फोरि कपार देखु  तँ   
सबहक सोनित एके छी 
हम एहन किएक छी ?

मुठ्ठी भरि लोक 
अपन स्वारथक कारणे
अपना सभकेँ 
तोर रहल अछि 
मोर रहल अछि 
जाति पातिमे ओझरा कए  
मिथिलाक विकाश  रोकि रहल अछि 

धरतिकेँ  कोनो जाति है छैक ?
मएक  कोनो जाति है छैक ?
तँ    हम सब सन्तान
बटेलौंह कोना ?
हम एहन किएक छी ?

आबो हम सँकल्प करी 
जाति-पाति पर नहि लरी 
अपन मिथला हमहि संभारब 
सप्पत मात्र एतबे करी  
हम एहन किएक छी ?
***जगदानन्द झा 'मनु'  

रविवार, 5 फ़रवरी 2012


गजल@प्रभात राय भट्ट

              गजल:-
एकटा स्वपनपरी हाथ लेने गुलाब छै
चन्द्रमा सन मुह पर लगौने नकाब छै
 
रौशनी नुकाबी से नकाबक ऑकाद कहाँ 
पारदर्शी चेहरा पर धेन आफताब छै
 
बिजलीक छटा सावन भादवक घटा छै
सोरह वसंतक जोवन पिने सराब छै
 
मदिरा में कहाँ जे हुनक अधर में मात
मातल जोवन रस छलकौने सराब छै
 
हुनक नयन मातली लगैछ मधुशाला
ठोरक पियाला में ओ जाम धेन वेताब छै
 
जाम पिबैलेल कतेको दीवाना बेहाल छै
रोमियो मजनू सब हाथ लेने गुलाब छै
 
हुनक जोवंक महफिल राग सजल छै
ओ श्रिंगार रासक गजल नेने किताब छै
..................वर्ण १६ ....................
रचनाकार:-प्रभात राय भट्ट

माछ आ मिथिला




माछ, माछ, माछ! मिथिलाके माछो महान्‌!
मिथिला महान्‌ - मिथिला महिमा महान्‌,
माछो महान्‌ - मखान आ पानो महान्‌,
माछ..माछ..माछ! मिथिलाके माछो महान्‌!

इचना के झोरमें ललका मेर्चाइ,
मारा के झोरमें सुरसुर मेर्चाइ,
चाहे जलखैय या हो खाना... होऽऽऽ!
छूटबैय सर्दी जहान! :)
माछ, माछ, माछ...
मिथिलाके माछो महान्‌!

गैंचाके काँटो बीचहि टा में,
नेनी के काँटो सगरो पसरल,
सदिखन काँटो कऽ के निकालय... होऽऽऽ!
स्वादमें सभटा महान!
माछ, माछ, माछ,
मिथिलाके माछो महान्‌!

आउ चलू देखी पोखैर में मच्छड़...
आइ निकलतै भून्नो के पच्चड़...
रौह, भाकुर, नेनी कऽ के पूछतैय... होऽऽऽ...
महाजाल फंसतय सभ माछ...
माछ..माछ.. माछ..
मिथिलाके माछो महान्‌!

बंसीमें देखू पोठी बरसय,
गरचुन्नी आ सरबचबा फंसय,
बड़का बंसीमें आँटाके बोर यौ... होऽऽ
से फंसबैय रौह माछ,
माछ..माछ..माछ...
मिथिलाके माछो महान्‌!

जतय माछ होइ लोक ततय हुलकल
माछ हाट के रूप रहय लहकल
एम्हर तौलह ओम्हर तौलह ... होऽऽऽ
सरिसो रैंची संग जान...
माछ, माछ, माछ,
मिथिलाके माछो महान्‌!

मिथिलाके पोखैर कादो भोजन
ताहि माछो के सुधरल जीवन
खायवाला सभ पेटहि पाछू ... होऽऽऽऽ
काजक बेर उड़य प्राण...
माछ, माछ, माछ...
मिथिलाके माछो महान्‌!

सुरसुर काका के माछक मुड़ा...
प्रभुजी काका के पेटीके हुड़ा...
सभमिलि बैसल चूसि-चूसि मारैथ होऽऽ
सगरो माछ के मजान...
माछ, माछ, माछ...
मिथिलाके माछो महान्‌!

प्रयागमें छैक मैथिल पंडा
सभ के अपन-अपन धंधा
पहिचान वास्ते होइछै जे झंडा... होऽऽ
ताहू में छै मिथिला माछ...
माछ, माछ, माछ,
मिथिलाके माछो महान्‌!

गोलही काँटी छही आ सुहा
सिंघी मांगूर बामी टेंगरा
जानि हेरायल कतय ई मिथिला.. होऽऽ
आन्ध्रा के भेलय तूफान...
माछ, माछ, माछ...
मिथिलाके माछो महान्‌!

हरिः हरः!
रचना:-
प्रवीन नारायण चौधरी

शनिवार, 4 फ़रवरी 2012

तोरा बिन सब सून!


तोरा बिन सब सून!

ऊपर निला अम्बर, आइ कारी तों बनि जो!
घुमि-घुमि पूरा दुनिया तों एतय बरिस जो!!

ऐ जोड़ा बरद नव फार लागल हरो जोति जो!
अंघौश-मंघौश फेंकि खेत में तों चौकियो चलो!

गे अनमोलिया! गामवाली बारी सँ बिहैनो अनो!
संगमें दुइ-चारि बोनिहरनी के रोपनी लेल बजो!

रोपे मोंन सँ मिलि गाबि-गाबि जे शीश बड़ फरो!
हर अन्नमें जीवन धनके ईश आशीष कूटि भरो!

गेल दिन दस तँ आबि फेरो खेतो कमो - कमठो!
अर्जाल-खर्जाल सँ खेत भरत तऽ अन्न कि फरो!

प्रिय मेघा तों बस समय-समय एतबी के बरसो!
जे धान हमर खेतक लहरय हरियाली से चमको!

हे शीतल शीत तों शीशमें शशि-अमृत रसके भरो!
जे चरित मोरा तोरा मीत सन दुनिया के सुधरो!

रवि दिन-दिन बल ज्योति सँ शक्ति शुभ रंग भरो!
निज नयन जुड़य इ हेरि-हेरि हरियर हरि हर करो!

हेमन्त आबि के आश धरी स्वच्छन्द नभमें तरो!
गम-गम गमकय उमंग सँ बस एहने आश बंधो!

जौँ तोँ नहि तऽ हम कि - कि दुनिया वा किछुओ!
बस तोरहि सँ सभ जीव अछि आ जान भी जियो!

बिन कृषि कोनो नहि काज के सुर ताल बने कहियो!
भले आन किछु के बाद में समुचित दरकार बनो!

हरिः हरः!

रचना:-
प्रवीन नारायण चौधरी

गजल


अहाँ हँसैत रहि हमरा देखैत रहि
अहाँके नव-नव गीत सुनाबैत रहि

अहाँ रुसल रहि हम मनाबैत रहि
गुणगान अहाँकेँ  सगरो गाबैत रहि

अहाँ राति भरि निचैन सँ सुतल रहि
जागि उठिते अहाँ केँ हम देखैत रहि

अहाँ केखनो हँसियो सँ पाछु जे देखब
ताहिखन हम जीबैत नै मरैत रहि

हमर जिबन अहाँ लेल बनल अछि
जिबन भरि अहींके लेल जिबैत रहि 

(सरल वार्णिक बहर, वर्ण-१५)
जगदानन्द झा 'मनु'  : गजल संख्या- -१६

शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2012

गजल


अन्हारक की सुख बुझथिन इ इजोतक गाम मे सदिखन रहै वाला।
दुखे केँ सुख बना लेलक करेजक घातक दुख चुपे सहै वाला।

जमानाक नजरिक खिस्सा बनल ए आब तऽ करेज हमर सुनू यौ,
हुनकर नजरि कहाँ देखलक हमर करेजक इ शोणित बहै वाला।

कहै छै लाजक नुआ मे मुँह नुकौने रहल दुनियाक डर सँ अपन,
इ रीत अछि दुनियाक, तऽ एतऽ किछ सँ किछ कहबे करतै कहै वाला।

करू नै प्रकट अपन सिनेह मोनक, यैह हमरा ओ कहैत रहल,
किया हम राखब उठा केँ समाजक जर्जर रिवाज इ ढहै वाला।

अहाँ डेग अपन उठेबे करब कहियो हमर मोनक दुआरि दिसक,
बहुत "ओम"क बहल नोर, दुखक गरम धार मे गाम इ दहै वाला।
मफाईलुन (ह्रस्व-दीर्घ-दीर्घ-दीर्घ) ५ बेर प्रत्येक पाँति मे।

गे में कोरा में उठा ले हमरा ,ह्रदय स लगा ले आयल छि तोरा शरण में चरण स लगा ले

गे में कोरा में उठा ले हमरा ,ह्रदय स लगा ले 
आयल छि तोरा शरण में चरण स लगा ले 
गे में ........................................................
हमहू तोरे सखा छि , भाटैकी हम गेल छि 
माया आ लोभ में , सहती हम गेल छि 
गे में अंचार में नुका ले हमरा नयन में समां ले 
गे में ............................................................

माँ नै कुमाता होई छई, हमही कपूत छि 
हमरा विसरी नै ऐना , हमहू तोरे पूत छी
गे में दया तों देखा दे हमरा दुबई स बचा ले 
गे में ............................................................
दस हाथ बाली मैया , कते के बचेलें 
हमरा बेर में जननी नजरी फेर लेलें 
गे में एक बेर फेर अपना करेजा स लगा ले 
गे में .........................................................
डेगे डेगे दुनियां हमरा, ठोकर मरईये
आंखी स नोर झहरे, रोकलो ने जाईए 
गे में टुटल आनंद के तों आश फेर बन्हा दे 
गे में ........................................................
रचना कर आनंद झा 
नोट :कृपया एही कविता के कोनो अंश या कविता हमरा स बिना पूछने उपयोग  नै करी अन्यथा क़ानूनी समाश्या के झेले पारी सके अछि

गजल

हमर अहाँक संग भेल
सवय संसार तंग भेल

रहल शराब निसा नहि
एकर कतेक रंग भेल

परल मचान पर छलौं
अपन चुमान संग भेल

अपन पबैत संग छलौं
सगर कपार चंग भेल

भरल एतेक रंग देख
हमर करेज दंग भेल

(सरल वार्णिक बहर, वर्ण-१२)
जगदानन्द झा 'मनु'  :  गजल संख्या-१५ 

इ जमीन अछि गांव के

इ जमीन अछि गांव के
गौर से देखु एकरा और प्यार से निहाइर लिय
आराम से बैसु अतए पल दू पल बिता लिय
सुध कनी ल लिय अतए पर एकटा हरियर घाव के
कि इ जमीन अछि गांव के , हं इ जमीन अछि गांव के ......

कुल कुनबा और कुटुम के अर्थ बेमानी भेल
दादा क्का हरा गेल सब बिसैर गेल बडकी मैयाँ
गांव भइर में रिश्ता के केहेन डोर में छल बान्हल
जाति के भेद रिशता के तराजू छल साधल
याद अछि अखन तक धीमर के इनार के छांह के .....
कि इ जमीन अछि गांव के , हं इ जमीन अछि गांव के ......

आपस के संबंध के चौंतार पर बैएस क
छल सब चौरा बहुते रौब स किछु अऐंठ क
छल नै पैसा बहुत और नय अधिक सामान छल
पर हमर ओही गांव में सबके बहुत सम्मान छल
मांइग क कपडा बनल बरयति के दादा के ...
कि इ जमीन अछि गांव के , हं इ जमीन अछि गांव के ......

गांव के जखन स शहर में आन जान भ गेल
गांव के सब मनुख आब खाना खाना भ गेल
सई बीघा ke मालिक गांव के अपने त छल
पगार के चक्कर मे छेदी शहर में अछि हरा गेल
बात करय के अछि हमरा ओय दौर के ठराव के ...
कि इ जमीन अछि गांव के , हं इ जमीन अछि गांव के ......

गुरुवार, 2 फ़रवरी 2012

माथ झुकेने बाप ठाड़्ह छथि बेवश आ लाचार...

माथ झुकेने बाप ठाड़्ह छथि बेवश आ लाचार
माँगि रहल अछि बेटीके ससूर होण्डा सिटी कार
नगद सेहो देब संगहि ओकर देब अहाँ जेवरात
लऽ जायब नहि तऽ वापस अपनेक घरसँ बरियात!

पिता कहै छथि सुनू समधीजी, बुझू हमर हालात
सुन्दर अछि बेटी हमर, सुन्दर ओकर खयालात
घरके स्वर्ग बना के राखत खूब करत ओ सेवा
घरमें लक्ष्मी सदिखन बसती धन के भेटत मेवा!

गृहस्थीके समान में देब छै जै सब चीजक दरकार
नहि दय सकबै अपनेकेँ एखन होण्डा सिटी कार!

ससूर कहै छथि बियाहे तखन करब अछि बेकार
हमरा चाही हर हालतमें बियाह में एकटा कार!

तखनहि अन्दर सँ बेटी अपन बाप सँ कहय लगली
नहि भरियौ पूज्य पिताजी एहि भिखारी के झोली!
कतेक देबैक कहिया देबैक इ छथि भिखारी पक्के
दैत-दैत हाइरियो जायब एक दिन अहुँ थाइक के!
नहि करबैक बियाह एतय बरु करबै पूरा पढाई
कतेको लड़की जे पैढ के किस्मत अपन बनौली!
ठाड़्ह होयब पैरो पर अप्पन तखनहि करबै बियाह!
बिना बनल आत्मनिर्भर बियाह करब माने बर्बाद!

"दहेज़ मुक्त के लेल एक टा छोट कोसीसी
दहेज़ मुक्त मिथिला परिवार"
चन्दन झा "राधे"

**आधुनिक पूजा**

आधुनिकता कए दोड़ मे पुजा आधुनिक भ' गेलै ,
पूजन सँ बेसी आयोजन पर ध्यान देल गेलै ,
मंहगाई कए मारल जनता सँ बेसी चंदा लेल गेलै ,
चौक-चौराहा पर पैघ पंडाल सजाओल गेलै ,
जेकर बेसी खर्च भेलै तेकर नाउ अखबार मे छापल गेलै ,
चिकनी चमेली ,शीला के जवानी ,जलाबी बाई कए नचाओल गेलै ,
कट्टो गिलहरी ,उह ला ला .रजिया संग कतेको मुन्नी बदनाम भेलै ,
कत्तौ-कत्तौ शेरावाली कए जयकारा सुनि पूजा कए यादि एलै ,
भक्तक कम रसिया कए भीड़ बेसी जुटलै ,
ओना पहिले जेकाँ मस्त भ' अबिर उड़ाओल गेलै ,
ऐ तरह सँ आधुनिक पूजा सफल भेलै . . . । ।
जौँ किनको खराब लागए त हम क्षमा चाहब ।
अमित मिश्र

गीत@ प्रभात राय भट्ट

गीत@ प्रभात राय भट्ट
 
सुन सुन रे  सुन पवन पुरबैया 
की लेने चल हमरो अप्पन गाम  
हमर जन्मभूमि वहि ठाम
जतय छै सुन्दर मिथिलाधाम //२
 
देश विदेश परदेश घुमलौं
मोन केर भेटल नहीं आराम
साग रोटी खैब रहब अप्पने गाम
जतय छै सुन्दर मिथिलाधाम //२
 
घर घर में छन्हि बहिन सीता
राजर्षि जनक सन पिता
सभ केर पाहून छथि राम
जतय छै सुन्दर मिथिलाधाम //२
 
काशी घुमलौं मथुरा घुमलौं
घुमलौं मका मदीना
सभ सँ पैघ विद्यापति केर गाम
जतय छै सुन्दर मिथिलाधाम //२
 
हिमगिरी कोख सँ बहैय कमला कोशी बल्हान
तिरभुक्ति तिरहुत छै जग में महान
दूधमति सँ दूध बहैय छै वैदेहीक गाम
जतय छै  सुन्दर  मिथिलाधाम //२
रचनाकार:-प्रभात राय भट्ट

बुधवार, 1 फ़रवरी 2012

चाह पीबू। (हास्य कविता)



     चाह पीबू।
        (हास्य कविता)

हरबड़ी मे जुनि ठोर पकाउ यौ नेता जी
दिल्लीक कुर्सी भेटल सूखचेन स अहाँ बैसू
आउ हम बेना डोला दैत छी
फूकी फूकी अहाँ गरम-गरम चाह पीबू।।

भूखे मरि रहल अछि जनता मरअ दियौअ ओकरा
नहि कोनो चिन्ता अहाँ के कोन अछि बेगरता
संसद के कुर्सी पर बैसल अराम अहाँ करू
करिक्का रूपैया स बैंक बैलेंस अहाँ भरू।।

मूर्ती बनबै स रथ यात्रा करै लेल पाई अछि
मुदा रोटी रोजगार हेतू एक्को टा पाई नहि अछि
फुसयाँहीक चुनावी घोषणा पर घोषणा टा करू
कुर्सी भेटल त घोटाला पर महाघोटाला टा करू।।

बाजि गेल चुनावी पीपही
राजनैतिक गठजोड़ जल्दी अहाँ करू
जुनि पछुआउ सियासी कुर्सी अहाँ ताकू
फेर पाँच साल जनता के बेकूफ बनाएल करू।।

दुनियाक सभ स नमहर लोकतंत्र
बनि गेल वोट बैंकक भेड़तंत्र
सम्प्रदायिकता के आगि मे जनता के झरकाउ
कुर्सी हथियाबै लेल रचू कोनो नबका षड्यंत्र।।

पहिने कुर्सी फेर मंत्रालय कोना भेटत
सभटा छल प्रपंच अखने अहाँ करू
हे यौ लोकप्रिय भलमानुष जनप्रतिनिधी
संसदो मे अहाँ खूम मुक्कम मुक्की करू।।

कुर्सीक खातिर देशक संसाधन बेचलहुँ
बाँचल खूचल सेहो एक दिन अहाँ बेचू
जनता भूखे मरि गेल ओ बिलैटि गेल
मुदा साले साल राजनैतिक रोटी अहाँ सेकू।।

मँहगाइ भूखमरी कोनो समाधान ने कराउ
कृषि मंत्रालय मे राखल अन्न अहाँ सड़ाउ
संसद के कैंटीन में सरकारी सब्सिडी लगाउ
चिकन कोरमा शाही पनीर भरिपेट अहाँ खाउ।।

घोटाला पर महाघोटाल सभ केलहुँ
तइयो ने पेट अहाँ के भरल
मिठ बोली बाजि जनता के ठकलहुँ
एक्को दिन भूखले पेट होएत अहाँ के रहल

कतेको लोक भूखले मरि गेल बेकार भेल अछि किएक
संसद भवन स एक दिन बाहर निकलि अहाँ त देखू
की भा परैत छैक एक्के दिन मे बुझिए जेबैए
बिना किछ खेन्ने एक दिन भूखले रहि के अहाँ देखू।।

मुदा कोनो चिन्ता नहि आब कुर्सी भेटिए गेल
संसद भवन मे सूखचेन स अहाँ बैसू
कारीगर बेना डोला दैत अछि
फूकी फूकी  अहाँ गरम-गरम चाह पीबू।।






लेखक:- किशन कारीगर

गजल@प्रभात राय भट्ट

कुमुदिनी  पर  भँभर    मंडराइए  किए
यौ पिया कहू ने  करेज   घबराइए   किए

भँभर कुमुदिनीसँ  मिलन करैत छैक
यै  सजनी अहाँक करेजा  हहाइए  किए

मोनक बगियामे  नाचैए  मोर मयूर यौ
प्रीतक  उमंगसँ  मोन   छतराइए  किए

अहाँक  रोम रोममे अछि प्रेमक तरंग
अहाँक संग हमरा एते  सोहाइए किए

प्रीतक बगियामे कुहकैए  छैक कोईली
मधुर स्वर सुनि  मोन  लहराइए  किए

मोन उपवनमे   भरल प्रीतक श्रृंगार
एलै मधुर घरी  मोन  घबराइए  किए

..........वर्ण:-१६..........

रचनाकार:-प्रभात राय भट्ट