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गुरुवार, 5 सितंबर 2013

गजल

कहियो तँ हमर घरमे चान एतै
नेनाक ठोर बिसरल गान गेतै

निर्जीव भेल बस्ती सगर सूतल
सुतनाइ यैह सबहक जान लेतै

मानक गुमान धरले रहत एतय
नोरक लपटिसँ झरकिकऽ मान जेतै

सुर ताल मिलत जखने सभक ऐठाँ
क्रान्तिक बिगुलसँ गुंजित तान हेतै

हक अपन "ओम" छीनत ताल ठोकिकऽ
छोडब किया, कियो की दान देतै

(दीर्घ-दीर्घ-ह्रस्व-दीर्घ)-(ह्रस्व-दीर्घ-दीर्घ-दीर्घ)-(ह्रस्व-दीर्घ-दीर्घ)
(मुस्तफइलुन-मफाईलुन-फऊलुन)- प्रत्येक पाँतिमे एक बेर

1 टिप्पणी:

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