शनिवार, 29 दिसंबर 2012
गजल
हे भगवान अपन ताकत देखा दिअ
हुनका क्षण मे हमरा लग बजा दिअ
बहुत दिनसँ तरसैत छी प्रेम लेल
सोलहो श्रृंगार मे एहि ठाम पठा दिअ
दिन- राति आँखि सँ कोसी गंडक बहबौँ
बान्ह टूटल ई गामक गाम बहा दिअ
कानैत कानैत हमरा अहाँ हँसा दिअ
हुनको हमरे सन हालत बना दिअ
असगर बैसल छी नै नीन्न नै चैन आबै
मुकुन्द हमरासँ तँ गले लगबा दिअ
दिन- राति आँखि सँ कोसी गंडक बहबौँ
बान्ह टूटल ई गामक गाम बहा दिअ
कानैत कानैत हमरा अहाँ हँसा दिअ
हुनको हमरे सन हालत बना दिअ
असगर बैसल छी नै नीन्न नै चैन आबै
मुकुन्द हमरासँ तँ गले लगबा दिअ
गजल
गजल
अहाँक बिना कोना कऽ रहबै हम
चाँन जकाँ मुँह नै बिसरबै हम
बड़ दिनसँ प्यासल छी मिलनक
सिन्धुक गहराई मेँ डुबबै हम
अहाँ रुप केर भरल खजाना छी
तँए रुपक दीवाना बनबै हम
अछि मोरनी सन के चालि अहाँ के
अहाँक संगे नाँचि के देखबै हम
ई मोन कहै छै एक ना एक दिन
अहाँ सँ कतौ नै कतौ भेटबै हम
'मुकुन्द' पुछैत अछि हे मृगनैनी
कहि दिअ कनियाँ बनबै हम ।।
बाल मुकुन्द पाठक ।
अहाँक बिना कोना कऽ रहबै हम
चाँन जकाँ मुँह नै बिसरबै हम
बड़ दिनसँ प्यासल छी मिलनक
सिन्धुक गहराई मेँ डुबबै हम
अहाँ रुप केर भरल खजाना छी
तँए रुपक दीवाना बनबै हम
अछि मोरनी सन के चालि अहाँ के
अहाँक संगे नाँचि के देखबै हम
ई मोन कहै छै एक ना एक दिन
अहाँ सँ कतौ नै कतौ भेटबै हम
'मुकुन्द' पुछैत अछि हे मृगनैनी
कहि दिअ कनियाँ बनबै हम ।।
बाल मुकुन्द पाठक ।
गजल
अहाँक गेलासँ आब जिनगी एकारी लागै
हमरा तऽ एको दिन ,साल जकाँ भारी लागै
देह हाथ सुखल हमर ,केशोँ नै माथा मेँ
अईना मेँ देखलासँ बडका बेमारी लागै
खाई पीयै मेँ हमरा किछो ,नीको नै लागैये
भात दालि कि खाईब ,निको नै सोहारी लागै
कि कहब हम बाबूकेँ ,केना देखेबै मुँह
पटना मेँ पढ़ल अनेरे मोन भारी लागै
देखै छी फोटो जौँऽ , उ और याद आबैत छथि
मुकुन्द के अहाँ बिना रहल लचारी लागै ।।
हमरा तऽ एको दिन ,साल जकाँ भारी लागै
देह हाथ सुखल हमर ,केशोँ नै माथा मेँ
अईना मेँ देखलासँ बडका बेमारी लागै
खाई पीयै मेँ हमरा किछो ,नीको नै लागैये
भात दालि कि खाईब ,निको नै सोहारी लागै
कि कहब हम बाबूकेँ ,केना देखेबै मुँह
पटना मेँ पढ़ल अनेरे मोन भारी लागै
देखै छी फोटो जौँऽ , उ और याद आबैत छथि
मुकुन्द के अहाँ बिना रहल लचारी लागै ।।
गजल
लोक कहैत छथि जे हम छी शराबी शराब पीबै छी
कियो बात मानै नै छी छै की खराबी शराब पीबै छी
हम तँ दिन राइत घुरिआइ छी मोन पाड़ि रहि रहि
हुनकर याद आएल बात घुराबी शराब पीबै छी
एक दिन उ हमरा नजरमे बसेला प्यार जगेला
हम दिलकेँ हुनक प्यारमे दौड़ाबी शराब पीबै छी
कहियो गाछीमे बैस नयन मिलेला मोबाइलसँ बतियेला
कियो बात मानै नै छी छै की खराबी शराब पीबै छी
हम तँ दिन राइत घुरिआइ छी मोन पाड़ि रहि रहि
हुनकर याद आएल बात घुराबी शराब पीबै छी
एक दिन उ हमरा नजरमे बसेला प्यार जगेला
हम दिलकेँ हुनक प्यारमे दौड़ाबी शराब पीबै छी
कहियो गाछीमे बैस नयन मिलेला मोबाइलसँ बतियेला
दिन राति हुनक यादसँ अपनाकेँ सताबी शराब पीबै छी
उ अपन दुनिया बसेलाऽ हमरा पागल बनेला
हुनकर चक्करमे मुकुन्द भेलै शराबी शराब पीबै छी
उ अपन दुनिया बसेलाऽ हमरा पागल बनेला
हुनकर चक्करमे मुकुन्द भेलै शराबी शराब पीबै छी
शुक्रवार, 28 दिसंबर 2012
लाशसँ भरल ट्रेन
दिल्लीसँ चलल ट्रेन । सेकेंड क्लास स्लीपर आरक्षित डिब्बा । ठसाठस भीड़सँ भरल डिब्बा सभ । एकटा डिब्बाक एक हिस्सामे; तीन व्यक्तिक सीटपर एक पुरुष हुनक स्त्री आ तीनटा 7 सँ 12 बर्खक बच्चा, अर्थात कुल पाँच गोटे बैसल । ई परिवार दिल्लीएसँ आबि रहल छलथि । हुनकर सभक सामनेक सीटपर सेहो पाँच व्यक्ति बैसल आ करीब- करीब सम्पूर्ण डिब्बाक कही तँ सम्पूर्ण ट्रेनक एहने हाल । नाम मात्रक आरक्षित डिब्बा, हालत जेनरलोसँ बत्तर ।
अपन लक्ष्यक पाँछा करैत ट्रेन बिहारक सीमामे प्रवेश कएलक । ट्रेन बक्सर स्टेशनपर रुकल । तीनटा, 24-25 सँ 30 बर्खक बिचक बलिस्ट युवक एके संगे भीड़केँ चिड़ैत जबड़दस्ती डिब्बामे प्रवेश कएलक । ओ तीनू सभकेँ ठेलैत धकलैत आगू बढ़ि ओतए जा कए ठार भेल जतए दिल्लीसँ चढ़ल परिवार बैसल छल । ओ तीनू अपनामे हा-हा-ही-ही ठठ्ठा करैत ओतेकदूरक वातावरणकेँ अभद्र बना देलक । ओतबोपर नहि माइन तीनूकेँ तीनू सिगरेट निकाइल कए ओकर नम्हर - नम्हर कश मारै लागल । तीनूक विषाक्त गप्पेकेँ पचेनाइ मुश्किल भए रहल छल ओहिपर आब सिगरेटक लछेएदार धुवाँक जहर, असहनीय होएत । दिल्लीसँ आबिरहल परिवारक पुरुष विनम्रसँ बजलनि - "भाइ साहब ! सिगरेट बंद करू, एहिठाम स्त्री धिया-पुता सभ छैक एकर धुवाँ सहनाइ असहनीय भs रहल छैक ।"
तीनू उदण्डमे सँ एकटा - "अरे वाह ! सिगरेट हमर, पाइ हमर, मुँह हमर तेँ हम सभ किएक नहि पीबू ?"
दिल्लीसँ आबिरहल परिवारक पुरुष - "मुदा हमरा सभकेँ असुबिधा भs रहल अछि ।"
"असुबिधा ! अरे वाह, बेसी असुबिधा अछि तँ अहीँ सभ दोसर डिब्बामे चलि जाउ ।"
"हम सभ दोसर डिब्बामे किएक चलि जाउ, हमरा सभ लग रिजर्वेशन अछि, बिना रिजर्वेशनक तँ अहाँ सभ छी ओहूपर अनैतिक काज कए रहल छी । ट्रेनमे बीड़ी सिगरेट पीनाइ अपराध छैक ।"
"अरे वाह ! अपने तँ उकील साब छी (दुनू हाथ जोरैत ) धन्य छी उकीलसाब, अपराध ! हा हा हा .... अपराध ई कोन अपराध भेलैह, अपराध होएत जखन अहाँक सुन्नर कनियाँकेँ लs कए भागि जाइ ।"
एतबा कहैत तीनूकेँ तीनू भीतर आगू बढ़क प्रयास कएलक आ एहि प्रयासमे किछु धक्का- मुक्की सेहो भेलै । तीनू आगू बढ़ि मर्यादाक सीमासँ बाहर बढ़ैए बला छल की रेलवे पुलिसक दूटा जवान कन्हापर बन्दूक रखने गस्त लगबैत ओहि डिब्बामे आएल । ओकरा देखते मातर तीनू ओहिठामसँ लंकलागि कए भागि गेल । मुदा ओहि डिब्बाक ठसाठस भरल भीड़मे सँ केकरो सहास नहि भेलै जे मात्र तीन गोट कपाटक मनुखसँ बाजि लड़ि कए एकटा नीक परिवार, जेकरा संगे की करीब 17-18 घंटा पाछूसँ यात्रा कए रहल छल रक्षा करी । आ ओ सहास हेतैक कोना । कियो जीबित होए तहन ने । सभ के सभ लाश अछि । एहन लाश जे अखबार पढ़ैत अछि, समाचार सुनैत अछि, यात्रा करैत अछि मुदा कोनो अनैतिक बातक पाँछा आबाज नै उठाबैत अछि ।
*****
जगदानन्द झा 'मनु'
अपन लक्ष्यक पाँछा करैत ट्रेन बिहारक सीमामे प्रवेश कएलक । ट्रेन बक्सर स्टेशनपर रुकल । तीनटा, 24-25 सँ 30 बर्खक बिचक बलिस्ट युवक एके संगे भीड़केँ चिड़ैत जबड़दस्ती डिब्बामे प्रवेश कएलक । ओ तीनू सभकेँ ठेलैत धकलैत आगू बढ़ि ओतए जा कए ठार भेल जतए दिल्लीसँ चढ़ल परिवार बैसल छल । ओ तीनू अपनामे हा-हा-ही-ही ठठ्ठा करैत ओतेकदूरक वातावरणकेँ अभद्र बना देलक । ओतबोपर नहि माइन तीनूकेँ तीनू सिगरेट निकाइल कए ओकर नम्हर - नम्हर कश मारै लागल । तीनूक विषाक्त गप्पेकेँ पचेनाइ मुश्किल भए रहल छल ओहिपर आब सिगरेटक लछेएदार धुवाँक जहर, असहनीय होएत । दिल्लीसँ आबिरहल परिवारक पुरुष विनम्रसँ बजलनि - "भाइ साहब ! सिगरेट बंद करू, एहिठाम स्त्री धिया-पुता सभ छैक एकर धुवाँ सहनाइ असहनीय भs रहल छैक ।"
तीनू उदण्डमे सँ एकटा - "अरे वाह ! सिगरेट हमर, पाइ हमर, मुँह हमर तेँ हम सभ किएक नहि पीबू ?"
दिल्लीसँ आबिरहल परिवारक पुरुष - "मुदा हमरा सभकेँ असुबिधा भs रहल अछि ।"
"असुबिधा ! अरे वाह, बेसी असुबिधा अछि तँ अहीँ सभ दोसर डिब्बामे चलि जाउ ।"
"हम सभ दोसर डिब्बामे किएक चलि जाउ, हमरा सभ लग रिजर्वेशन अछि, बिना रिजर्वेशनक तँ अहाँ सभ छी ओहूपर अनैतिक काज कए रहल छी । ट्रेनमे बीड़ी सिगरेट पीनाइ अपराध छैक ।"
"अरे वाह ! अपने तँ उकील साब छी (दुनू हाथ जोरैत ) धन्य छी उकीलसाब, अपराध ! हा हा हा .... अपराध ई कोन अपराध भेलैह, अपराध होएत जखन अहाँक सुन्नर कनियाँकेँ लs कए भागि जाइ ।"
एतबा कहैत तीनूकेँ तीनू भीतर आगू बढ़क प्रयास कएलक आ एहि प्रयासमे किछु धक्का- मुक्की सेहो भेलै । तीनू आगू बढ़ि मर्यादाक सीमासँ बाहर बढ़ैए बला छल की रेलवे पुलिसक दूटा जवान कन्हापर बन्दूक रखने गस्त लगबैत ओहि डिब्बामे आएल । ओकरा देखते मातर तीनू ओहिठामसँ लंकलागि कए भागि गेल । मुदा ओहि डिब्बाक ठसाठस भरल भीड़मे सँ केकरो सहास नहि भेलै जे मात्र तीन गोट कपाटक मनुखसँ बाजि लड़ि कए एकटा नीक परिवार, जेकरा संगे की करीब 17-18 घंटा पाछूसँ यात्रा कए रहल छल रक्षा करी । आ ओ सहास हेतैक कोना । कियो जीबित होए तहन ने । सभ के सभ लाश अछि । एहन लाश जे अखबार पढ़ैत अछि, समाचार सुनैत अछि, यात्रा करैत अछि मुदा कोनो अनैतिक बातक पाँछा आबाज नै उठाबैत अछि ।
*****
जगदानन्द झा 'मनु'
लेबल:
जगदानन्द झा 'मनु',
बीहनि कथा
गजल
भूतलेलौं किए एना मन लगा लिअ
आउ चलि संगमे हमरो अप्पना लिअ
नै बचन देब हम नै किछु मोल एकर
संग हमरा लऽ मोनक संसय हटा लिअ
जुनि बुझू आन जगमे सपनोसँ कखनो
बुझि कऽ अप्पन कनी छू ठोरसँ सटा लिअ
जीवनक काँट एते कोना बिछब ई
छोड़ि सगरो जमानाकेँ वर बना लिअ
रूप सुन्नर अहाँकेँ ई ओहिपर बदरा
जीब कोना करेजामे 'मनु' बसा लिअ
(बहरे - असम, मात्राक्रम : 2122-1222-2122)
✍🏻 जगदानन्द झा ‘मनु’
लेबल:
गजल,
जगदानन्द झा 'मनु'
बुधवार, 26 दिसंबर 2012
मंगलवार, 25 दिसंबर 2012
गजल
नीक नीक लोकक ई केहन काज अछि
बेटा बेचैत नै कनिको किए लाज अछि
मायाक महिमा सगरो पसरल अछि
जतए देखू आब रुपैयाक राज अछि
धर्म निकलैत अछि पाखण्डमे बोड़ि क'
नवका आइ केहन एकर शाज अछि
बैमानी शैतानी बिच्चेठाम पोसाइ छैक
शुद्धाक जीवनमे तँ खसल गाज अछि
अप्पन बड़ाइमे 'मनु' बुड़ाइ करै छी
माथक बनल ई कएहन ताज अछि
(सरल वार्णिक वर्ण, वर्ण - 15)
लेबल:
गजल,
जगदानन्द झा 'मनु'
रविवार, 23 दिसंबर 2012
मैथिलीक समानान्तर साहित्य आ संस्कृति: एकटा उदार आन्दोलनी स्वरूप
शनिवार, 22 दिसंबर 2012
सभसँ प्रिय बस्तु
दादाजी दिन भरिकेँ थाकल झमारल घरमे अबैत छथि । हुनका बैसति देरी दादीक तेज स्वर गुइज उठै छनि - " आबि गेलहुँ दिन भरि बौवा कए । ई जे दिन भरि छिछियाइत रहै छी से एहि मिथिला मैथिली सँ की घरक चूल्हो जड़त ।"
दादाजी शांत गंभीर होइत - "चूल्हा तँ नहि जड़त मुदा हमर सभ्यता संस्कृति हमर माएक भाषा जे हमर सभक हाथसँ छूति रहल अछि एनाहिते छुटैत रहल तँ एक दिन लोप भए जाएत आ एहन अवस्थामे कि जरुड़ी अछि ? घरक चूल्हा जड़ेनाइ की अपन माति पानि सभ्यता आ सरोस्वतीक कंठसँ निकलल मैथिलीक मिझएल आगिकेँ जड़ा कए प्रचंड केनाइ ।"
दादीजी हुनकर गप्प सुनि चुप्प । ओ शाइद सभ्यता संस्कृति माएक भाषा माति पानि एहेन भारी भारी शव्दक कोनो अर्थ नहि बूझि पएलि मुदा दादाजीक छोड़ैत साँससँ एतेक तँ अबस्य बूझि गेलि जे हुनकासँ हुनक कोनो सभसँ प्रिय बस्तु दूर भए रहल छ्लनि ।
लेबल:
जगदानन्द झा 'मनु',
बीहनि कथा
रुबाइ
साउन चढ़ल छोड़ि चलि कोना गएलहुँ
बहए हवा शितल सिहरैए हमर तन
कोना रहब बिनु अहाँ बुझि नै पएलहुँ
लेबल:
जगदानन्द झा 'मनु',
रुबाइ
रुबाइ
सिस्टम आइकेँ किए बबाल बनल अछि
नेता सभ तँ एकटा जपाल बनल अछि
बड़का बड़का बागर सभ राज चलबैए
जनताक प्राणेपर सबाल बनल अछि
लेबल:
जगदानन्द झा 'मनु',
रुबाइ
रुबाइ
गामक अधिकारी भेला सैयाँ हमर
कोना क पकड़तै कियोक बैयाँ हमर
सभक पेटीक माल आब हमरे छैक
सैयाँ लएथिन सभटा बलैयाँ हमर
लेबल:
जगदानन्द झा 'मनु',
रुबाइ
सदस्यता लें
संदेश (Atom)