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शनिवार, 25 अगस्त 2012

गजल


हम चान लेबैलए बढ़लौं अहाँ रोकब तैयो तारा लेबै 
मैथिलकेँ बढ़ल डेग नहि रुकत आब जयकारा लेबै 

मिथिलाराज मँगै छी हम भीखमे नहि अधिकार बूझि
चम्पारणसँ दुमका नहि देब किशनगंज  तँ आरा लेबै 

छोरलौं दिल्ली मुंबई अमृतसर सूरतकेँ बिसरै छी 
अपन धरतीपर आबि नहि केकरो सहारा लेबै 

गौरब हम जगाएब फेरसँ प्राचीन मिथिलाक शानकेँ 
विश्व मंचपर एकबेर  फेर पूर्ण मिथिलाक नारा लेबै 

उठू 'मनु' जयकार करू अपन भीतर सिंघनाद करू 
फेरसँ निश्चय कए सह सह अवतार बिषहारा लेबै      

(सरल वार्णिक बहर, वर्ण-२२)  
  

बुधवार, 22 अगस्त 2012

रुबाइ

कोना मरि-मरि क हम रुपैया कमेलौं

सुख चैन निन्न रातिकेँ अपन हरेलौं

घर गामक सबटा सऽर संबंध तियागि

बाहर बिन दोषकेँ  वनवास बितेलौं 

               ✍🏻 जगदानन्द झा ‘मनु’


सोमवार, 20 अगस्त 2012

गजल


हमर कमाई कोन कोनामे परल अछि
मंत्री घरमे बैमानीक सोना गरल अछि

गरीब बनि गेल आई जब्बहकेँ बकरी
चिकबा धनिकाहा गामे गाम फरल अछि

डाका परै परोसमे जँ सुतलौं निचैनसँ
ई निश्चय बुझू आत्मा हमर मरल अछि

ढोंगी भक्तकेँ नहि निकलै रुपैया दानमे
भरि थारी लेने खंड माछक तरल अछि

शहर नहि 'मनु' गाम गामकेँ चौकपर
मनुखसँ सजि शराबखाना भरल अछि

(सरल वार्णिक बहर, वर्ण-१६)

गजल


बाबा पोखरिकेँ रौहक की कही
यादि अबैए बाबी हाथक दही

अशोक ठाढ़िसँ कूदि पोखरिमे
जाईठ छुबि कोना पानिमे बही

बनसी बनाबी कोना नूका कए
पूल्ली बनाबै लेल काटी खरही

छीन कs नानी हाथक मटकूरी
छोट-छोट हाथसँ छाल्ही मही

जखन अबैत गामक इआद
कनि-कनि कs हम नोरेमे बही

सभ सुख रहितो परदेशमे
माटिक बिछोह कते हम सही

मैरतो 'मनु' सभ सुख छोरि कs
मिथिलाक माटिपर हम रही

(सरल वार्णिक वर्ण, वर्ण-१२)

रविवार, 19 अगस्त 2012

गजल


घर-घर रावन आई बसल अछि 
सौभाग्यक सीता कतए भसल अछि 

करेजाक स्नेहकेँ मोल ने रहि गेल 
सभहक प्रेम पाईमे फसल अछि 

कर्तव्य बोध बिसरा गेल सभतरि  
भ्रष्टाचारमे सभ कियो धसल अछि 

बैमान बैसल अछि राजगद्दीपर
इमानक मीटर कते खसल अछि 

देश समाज 'मनु' नहि कुशल आब 
जमाए बनल आतंकी असल अछि 

जगदानन्द झा 'मनु'
(सरल वार्णिक बहर, वर्ण-१४) 

शुक्रवार, 17 अगस्त 2012

गजल


रमजान आ ईदक शुभ अवसर पर प्रस्तुत कऽ रहल छी एकटा गजल। ऐ गजलक प्रेरणा हम एकटा प्रसिद्ध कव्वाली सँ लेने छी।

मदीनाक मालिक अहाँ ई करा दिअ
करेजा हमर बस मदीना बना दिअ

हमर मोन निश्छल भऽ गमकै धरा पर
कृपा एतबा अपन हमरा पठा दिअ

बनै सगर दुनिया खुशी केर सागर
सभक ठोर एतेक मुस्की बसा दिअ

दया केर बरखा करू ऐ पतित पर
मनुक्खक कते मोल हमरा बता दिअ

दहा जाइ दुनिया सिनेहक नदीमे
अहाँ "ओम" केँ प्रेम-कलमा पढा दिअ
बहरे-मुतकारिब
फऊलुन (ह्रस्व-दीर्घ-दीर्घ) - ४ बेर प्रत्येक पाँति मे

बुधवार, 15 अगस्त 2012

रुबाइ

अनकर घर जड़ा हाथ सेकै सभ कियो 
दोसरक करेजा तोरि हँसै सभ कियो 
अपना पर जे बिपति एलै कएखनो 
माथा पकडि हिचुकि-हिचुकि कनै सभ कियो

                      ✍🏻 जगदानन्द झा ‘मनु’

मंगलवार, 14 अगस्त 2012

रुबाइ

फूसियो जँ कनी अहाँ इशारा करितहुँ

भरि जीवन हम अहीँक बाटमे रहितहुँ

मुस्कीमे अहाँक अपन मोन लूटा क

तरहत्थीपर जान लेने   हम अबितहुँ

                       ✍🏻 जगदानन्द झा ‘मनु’

शनिवार, 11 अगस्त 2012

गजल

किछु एहन काज करब हमहुँ
नै फोटो में टाँगल रहब हमहुँ 

एलहुँ जन्म लए कए दुनियाँ में 
एक नै एक दिन मरब हमहुँ 

कुकूर बिलाई जकाँ पेट पोसैट
आब जुनि ओहेन बनब हमहुँ 

आगु बढि नबका समाज बनाबि
नै पाछु आब आगू चलब हमहुँ 

खाख छनि 'मनु' बहुत बौएलहुँ  
आब अपने घर रहब हमहुँ 

(सरल वार्णिक बहर, वर्ण -१३)

प्रेमक बलि


प्रवल आ सुमन एक दोसरसँ बहुत प्रेम करैत छल | दुनू संगे- संग बितल पाँच बरखसँ पढि रहल छल आ ओहि समयसँ दुनूक बिचक चिन्हा परिचय कखन अगाध प्रेममे बदैल गेलै से दुनूमे सँ केकरो सुधि नहि रहलै | आब दुनूक प्रेम अपन चरम सीमा पर पहुँच चुकल छैक आ एक दोसरकेँ बिना जीवनक कल्पनो दुनूक लेल असहनीय छैक | दुनूक प्रेम आब दुनूक एकान्तीसँ निकैल कालेज कम्पलेक्समे गमकए लगलै आ तरे-तरे गाम तक  सेहो | मुदा  रुढ़िवादी ताना-बानामे बुनल समाजक व्यवस्थामे दुनूक मिलन आ  विवाहक कल्पनो असंभव छलैक | किएक तँ  प्रवल ब्राह्मण आ सुमन तेली जातिकेँ छल आ प्रवलक मए बाबू आ समाजकेँ लोग एहि बिजातीय विवाहकेँ पक्षमे कोनो हालतमे तैयार नहि | एहि सभ गप्पक अनुभब प्रवल आ सुमनकेँ सेहो भेलैक मुदा ओहो दुनू अप्पन प्रेमसँ बन्हल वेबस | करए   तँ करए की ? समाजक व्यबस्थाक कारणे विवाहक कल्पने मात्रसँ देह सिहैर जाई | दुनूक प्रेम आब ओई   सिखर पर पहुँच गेलैक जतएसँ वापसीक कोनो गुंजाइस नहि | मए बाबू  सभटा जनितो समाजक डरे  गप्प मानैक तैयार नहि |
एक दिन दुनू गोटा एहि विषय पर गप्प करैत रहे, प्रवल बाजल -" चलू दुनू गोते दिल्ली,मुम्बई भागि ओहि ठाम विवाह कए लेब नहि कोनो समाज नहि गाम आ नहि मए बाबूक डर |"
सुमन - "से   तँ ठीक छैक मुदा हम अपन जीवन जीबैक लेल हुनक जीवनसँ कोना खेलव जीनक जीवैक आसा अपना दुनू गोते छी | सोचू हमरा भगला बाद हमर मए बाबूकेँ आ अहाँक भगला बाद अहाँक मए बाबूकेँ समाजमे की प्रतिस्ठा रहि जेतैंह आ ओकर बाद हुनक जीवन केहन हेतैंह आ एहेन कए ककी हम दुनू अपन जीवनकेँ खुश राखि पाएब | प्रेम  तँ तियागक नाम छैक | ऐना एकटा अनुचीत डेग उठा कए हम अपन प्रेम कए बदनाम कोना कए सकै छी | रहल मिलन आ वियोगक गप्प तँ  मिलनकेँ लेल एकैटा जन्म नहि छैक, एहि जन्ममे नहि अगिला जन्ममे अपन मिलन अबस्य होएत |"
सुमनकेँ ई गप्प सुनि प्रवल किछु नहि बाजि पएल ओकरा अपन करेजासँ सटा जेना सभ किछु बिसरि जएबाक प्रयास कए रहल अछि |
अगिला भोरे-भोरे गामक पोखरि मोहार पर पीपड़  गाछक निच्चा भिड़क करमान लागल | सामने पीपड़ गाछसँ प्रवल आ सुमनकेँ मुइल देह फसड़ी लागल लटकल | दुनूकेँ आँखि बाहर निकलल जेना  समाजसँ एखनो किछु प्रश्न कए रहल अछि - ऐना कहिया तक, प्रेमक बलि लेब ?
✍🏻 जगदानन्द झा ‘मनु’


शुक्रवार, 10 अगस्त 2012

संविधान में संशोधन हो

संविधान में संशोधन हो…!
प्रावधान में परिवर्तन हो…!

पाप पातर लोभ लटले द्वेषो नै देह्गर छलय
भ्रष्टाचार कोखे तखन आतंको नै बलगर छलय
छल संचरित संवेदना करेज नै उस्सर छलय
स्वतन्त्र भारत में ऐना लोक नै असगर छलय

सतयुगी अवधारणा के
कलयुगी अवलोकन हो…!
संविधान में संशोधन हो..!

जाति-धर्म आधार उचित नै लोलुप ई उपहार उचित नै
आरक्षण अक्षम के चाही आरक्षित सरकार उचित नै
प्रतिभा के अवरोधित कऽ मुर्खक जय-जयकार उचित नै
पात्रता जों होय कलम के देब हाथ तलवार उचित नै

आरक्षण जों आवश्यक तऽ
कर्मशील लेल आरक्षण हो…!
संविधान में संशोधन हो..!

संस्कृति के आयात कियै साहित्य भेल एकात कियै
सोना के चिड़ै छलै कहियो उपटल आइ जयात कियै
जे पैर धरै लेल ठाम देलक तकरे पर फेंकी लात कियै
सृजन करू श्रृंगार करू होय मानवता पर घात कियै

मानव मूल्यक हो सम्मान
संस्कार के संरक्षण हो…!
संविधान में संशोधन हो..!

पक्षपात नै नीति-नियम में न्यायोचित व्यवहार करू
जाति-पाति आ भेद-भाव सँ जुनि देशक बंटाधार करू
पद भेटल तऽ पदवी राखू भ्रष्ट नै निज आचार करू
घूस-दहेज दुनु अछि घातक दुन्नू के प्रतिकार करू

नीक प्रथा के चलन चलाबू
कुरीति केर उन्मूलन हो…!
संविधान में संशोधन हो..!

बाहुबलिक नै चलतै धाही आब नै सहबै तानाशाही
लोकक धन सँ लड़ै चुनाव लोके सँ फेर करै उगाही
शंखनाद सँ चेता रहल छै जन-क्रांति के वीर सिपाही
जनतंत्र में जनता मालिक नेता नै जनसेवक चाही

बहिष्कार हो राज-नीति के
जन-नीतिक अभिनन्दन हो..!
संविधान में संशोधन हो..!
संविधान में संशोधन हो..!

©पंकज चौधरी (नवलश्री)
(तिथि-१०.०८.२०१२)

गुरुवार, 9 अगस्त 2012

गजल

आबए छैक  मजा रसिक पर कलम चलाबएसँ
बनि गेल जे गजल हुनक चौअन्नी बिहुँसाबएसँ

प्रेम होबएमे नै  लगैत छैक बरख दस बरख
भ जाए छैक प्रेम बस कनेक नजैर झुकाबएसँ

जँ  प्रेममे  कपट होए   टूटीतौ नहि लागै छैक देर
जेना टूटि जाइ  छैक काँच कनीके हाथ लगाबएसँ

जँ नहि बुझि पेलौं आंखिक कोनो इशारा कहियो अहाँ
आईए  की  बुझब  आँखिसँ हमर नोर  बहाबएसँ

ताग टूटल जोरबासँ परि जाइ  छैक गीरह जेना
रूबी ओझरेब ओहिना  बेर बेर प्रेम लगाबएसँ

(आखर -२०)
रूबी झा

गजल



नव लोकक केहेन नव चलन देखियौ
एक दोसर सँ कतेक छै जरण देखियौ

खोलि क राखने बगल में रमक बोतल
आ मुहं मे रामक केहेन भजन देखियौ

दिने दहार झोंकि रहल छै आंखि मे धूल
बनि रहल छैक कतेक सजन देखियौ

चपर चपर सब तैर बजैत चलै छै
बेर काल मे नाप तौल आ वजन देखियौ

देखि सुनि रुबी क लागि रहल छै अचरज
भ्रष्ट जुग मे भ रहल ये मरण देखियौ

आखर -१६
रूबी झा

गजल

बन्न घरमें भोरमें कानै किए छी
आंखिक नोर सँ सभ सानै किए छी

बुझै छी जनु लगै हमरा सँ भय
प्रिय आन बुझि मोन आनै किए छी

प्रथम भेंट क' अछि आजुक भोर
डॉर होय अहाँ क इ ठानै किए छी

संगे-संग गमायेब सुख आ दुःख
तहन गप अहाँ नै मानै किए छी

लाजे मरै छैक ''रूबी'' यौ प्रियबर
रहस्य एतबो टा नै जानै किए छी

सरल वार्णिक बहर वर्ण -१३
रूबी झा

गजल

आइ हमरा निन्न भैए ने रहल अछि
कल्पना जनि कोन मोने में गरल अछि

किछ लिखा चाही खुशी सौ छी अहाँ बिन
इंक नै पहिने हमर नोरे खसल अछि

सौन माषक पैन इन्होरे बुझाई
सगर जिनगी में अनल हमरा भरल अछि

पंचमी इ प्रथम केहन  बितल   पिय  बिन
सौंस पख बिरहन बनि क आशे बितल अछि

पहर राइत आध में जागल चिहुक के
मोन वेकल अछि रूबी भाग्ये जरल अछि

२१२२-२१२२ -२१२२ सभ पांति में
रूबी झा