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बुधवार, 6 मार्च 2013

गजल



लुटेए गाम गाबेए कियो लगनी
किए लागल इना सभकेँ शहर भगनी

कियो नै सोचलक परदेश ओगरलक
गेलै गामपर माए किए जगनी

उठेलहुँ बोझ हम आनेक भरि जिनगी
अपन घरमे रहल सदिखन बसल खगनी

बिसरलहुँ सुधि सगर कोना कहम हुनकर
बनेलहुँ अपन जिनका हम घरक दगनी

अपन जननी जनमकेँ भूमि नै बिसरल
भरल बाँकी तँ अछि सभठाम मनुठगनी

(बहरे हजज, मात्रा क्रम १२२२ तीन तीन बेर सभ पांतिमे)
जगदानन्द झा मनु’             

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