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शुक्रवार, 30 नवंबर 2012

गजल



जखन खगता सभसँ बेसी तखन ओ मुँह मोड़ि लेलनि 
जानि आफत छोरि हमरा सुखसँ नाता जोड़ि लेलनि 

देखि चकमक रंग सभतरि ओहिमे बहि ओ तँ गेली 
जानि खखड़ी ओ हमर हँसिते करेजा कोड़ि लेलनि 

बन्द केने हम मनोरथ अप्पन सदिखन चूप रहलहुँ 
पाञ्च बरखे आबि देख फेर सपना तोड़ि लेलनि 

दुखसँ अप्पन अधिक दोसरकेँ सुखक चिन्ता कएने 
आँखि जे फूटै दुनू तैँ एक अप्पन फोड़ि लेलनि 

चलक सप्पत संग लेलहुँ जीवनक जतराक पथपर 
मेघ दुखकेँ देखते ओ संग 'मनु'केँ छोड़ि लेलनि 

(बहरे - रमल, मात्राक्रम- 2122 चारि-चारि बेर सभ पांतिमे)     

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