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शुक्रवार, 14 नवंबर 2014

गजल

कानैत आँखिक आगिमे जरल आकाशक शान छै
बेथा करेजक लहकि गेलै, सभक झरकल मान छै

बैसल रहै छी प्रभुक दरबारमे न्यायक आसमे
हम बूझलौं नै बात, भगवान ऐ नगरक आन छै

सदिखन रहैए मगन अपने बुनल ऐ संसारमे
चमकैत मोनक गगनमे जे विचारक ई चान छै

आसक दुआरिक माटि कोडैत रहलौं आठो पहर
सुनगैत मोनक साज पर नेहमे गुंजित गान छै

सूखल मुँहक खेती सगर की कहू धरती मौन छै
मुस्की सभक ठोरक रहै यैह "ओम"क अभिमान छै
- ओम प्रकाश
दीर्घ-दीर्घ-ह्रस्व-दीर्घ, दीर्घ-दीर्घ-ह्रस्व-दीर्घ, दीर्घ-ह्रस्व-दीर्घ-दीर्घ, दीर्घ-दीर्घ-ह्रस्व-दीर्घ,
मुस्तफइलुन-मुस्तफइलुन-फाइलातुन-मुस्तफइलुन (प्रत्येक पाँतिमे एक बेर)

गजल

अपन मोनक कहल मारि बैसल छी
छलै खिस्सा लिखल फाडि बैसल छी

हँसी हुनकर हमर मोनमे गाडल
करेजा अपन हम हारि बैसल छी

पढू भाषा नजरि बाजि रहलै जे
किए हमरा अहाँ बारि बैसल छी

सिनेहक बूझलौं मोल नै कहियो
अहाँ गर्दा जकाँ झारि बैसल छी

जमाना कहल मानैत छी सदिखन
कहल "ओम"क अहाँ टारि बैसल छी
- ओम प्रकाश
मफाईलुन-फऊलुन-मफाईलुन (प्रत्येक पाँतिमे एक बेर)

मंगलवार, 11 नवंबर 2014

गजल

मनक भीतर माटिक प्रेम काबा सन
लगैए ई दूर भय गर्म आबा सन

दियावाती भेल  नै  चौरचन भेलै
मनोरथ भसि गेल ताड़ीक डाबा सन

अपन अँगने छोरि एलहुँ सगर हित हम
फरल दुश्मन एतए बड्ड झाबा सन

करेजामे दर्द गामक बसल एना
बिलोका बनि ओ तँ चमकैत लाबा सन

पिया बैसल  दूर परदेशमे  'मनु' छथि
विरहमे हम छी हुनक बनल बाबा सन

(मात्रा क्रम : १२२२-२१२२-१२२२)
जगदानन्द झा 'मनु'

गुरुवार, 16 अक्टूबर 2014

गजल


एमरीक पूजा जोड़ पकरने छै
गाम गाम मैयाकेँ पसारने छै

एक दोसरामे होड़ छैक लागल
सभक बुद्धिकेँ के आबि जकरने छै

पाठ माइकसँ छकरैत आँखि मुनि सभ
अपन घरक माएकेँ तँ बिसरने छै

एक कोणमे छथि चूप मूर्त मैया
लोक नाच गाजा भाँग दकरने छै

'मनु' किछो जँ बाजल आँखि खोलि कनिको
लोक ओकरेपर गाल छकरने छै

(मात्राक्रम :२१-२१-२२/२१-२१-२२)
© जगदानन्द झा 'मनु'           

गजल


करेजामे हमर साजन आबि गेलै
मनक सभ तार बटगबनी गाबि गेलै

हुनक मुस्कीसँ सगरो दुनियाक सम्पति
करेजा जानि नै कोना पाबि गेलै

बलमकेँ दर्द जानि कए मोन कनिको
कतेक दुख अपन चट्टे दाबि गेलै

बनेलहुँ अपन जखनसँ संगी बलमकेँ
जिला भरि केर लोकक मुँह बाबि गेलै

बसने छलहुँ मन मंदिरमे जिनक छबि
दया भगवानकेँ ‘मनु’ ओ पाबि गेलै

(बहरे करीब, मात्रा क्रम : १२२२-१२२२-२१२२)
© जगदानन्द झा ‘मनु’

रविवार, 5 अक्टूबर 2014

अभागल जनता


कोनो मोल नहि सधारण मनुषक जिनगीक
कीड़ा मकोड़ा जेना समा जाइत अछि
अकाल कालके गालमे
बड़का बड़का कहाबे वाला जनसेवक
जनताके बुझैत अछि भेड़ बकड़ी
कटवा दैत अछि अपन कुर्सी खातिर
मृत्यु परल लाशपर सेहो होइत अछि राजनिती
खूब घोषणा होइत अछि क्षतिपूर्तिक हेतु
हर बेर बनैत अछि जाँच आयोग
मुदा परीणाम घासके तीन पात
लाशक मुआवजामे सेहो घूसखोरी
ताहुपर साहबक सिनाजोड़ी
के किछु कहतै ओकरा
ओकरे शाशन ओकरे प्रशाशन
जनसाधारण बहाएत नोर
मुदा "अभागल जनताक" नोरक नहि कोनो मोल !!!!!!!!!!!
               
        :गणेश कुमार झा "बावरा "
          गुवाहाटी

रविवार, 14 सितंबर 2014

काल


छोरु गौरवमय गाथा भूतकाल केर
आब जीवू वर्तमानमे
जरल जुन्ना जकाँ ऐँठल
देखैएमे खाली
छुबैत मातर जे छाउर बनि जए

जितैक लेल मान दान आ प्रतिस्था
पाछू जुनि,
देखू आगूक
ओहो तँ कियो छैक
जे चानकेँ छुलक
तँ हमहीँ कहिया धरि
चानक पूजा करब
ओहो तँ कियो छैक
जे मंगलपर पेएर रखलक
तँ हमहीँ  कहिया धरि
मंगलकेँ अमंगल मानि
काज नहि करब
ओहो तँ कियो छैक
जे पाँतिक आगू चलैत छैक
तँ हमहीँ कहिया धरि
झंडा लऽ कऽ पाँतिक पाछू चलब

मानलहुँ हमर भूत
बड़ नीक आ उत्तम छल
मुदा वर्तमान किएक एहेन अछि  
आबू देखू, बैस कए सोचू
कि सनेस हम अपन भविष्यकेँ देब ?
जँ रहलहुँ चूप
हाथपर हाथ धेने
तँ ओकरा लग
कोनो नीक भूतो नहि रहत
आ जाकरा लग
वर्तमान आ भूत दुनू शून्य
ओहि लोकक
ओहि संस्कृतिक
आ ओहि समाजक लुप्त भेनाइ
अवस्यसम्भाविक छैक
आब अहीँ कहू
कि हम सभ
हमर सबहक संस्कृति
हमर समाज, कि लुप्त भए जाएत ?
कि लुप्त भए जाएत ?
कि लुप्त भए .......
© जगदानन्द झा ‘मनु’ 

गुरुवार, 28 अगस्त 2014

भक्ति गजल

नै अहाँ केर बिसरी नाम हे भगवन
होइ कखनो अहाँ नै बाम हे भगवन

सुख कि भेटे  दुखे जीवनक रस्तापर
संगमे रहथि सदिखन राम हे भगवन

हम बनेलौं सिया मंदिर अपन मनकेँ
आब कतए अहाँकेँ ठाम  हे भगवन

आन नै आश कोनो बचल जीवनकेँ
अपन दर्शनकटा दिअ दाम हे भगवन

‘मनु’ अहाँकेँ करैए जोड़ि कल विनती
तोड़ि फेरसँ तँ अबियौ खाम हे भगवन

(बहरे मुशाकिल, मात्रा कर्म – २१२२-१२२२-१२२२)

© जगदानन्द झा ‘मनु’

गजल


वेदरदी नै बुझलक हमरो जखन
जीबू कोना जीवन झहरल तखन

घर घर अछि रावण रामक भेषमे
कतए रहती आजुक सीता अखन

दुश्मन बनि गेलै भाइक भाइ अछि
टाकामे भसिएलै कतए लखन

सुखि गेलै ममता मायक कोइखक
भदबरिया पोखरि सन भेलै भखन  

सगरो पसरल ‘मनु’ सहसह दू मुँहा
काइट नै लेए के कतए कखन     

(मात्रा क्रम – २२२-२२२-२२१२)
©जगदानन्द झा ‘मनु’

रविवार, 24 अगस्त 2014

८३म सगर राति दीप जरय नन्द विलास रायक संयोजकत्वमे

८३म सगर राति दीप जरय नन्द विलास रायक संयोजकत्व मे भपटियाहीमे ३० अगस्त संध्या ६ बजे सँ ३१ अगस्त भोर ६ बजे धरि आयोजित अछि। ई आयोजन नारी केन्द्रित लघु आ विहनि कथापर आयोजित अछि। अहाँ सादर आमंत्रित छी।

विदेह भाषा सम्मान (समानान्तर साहित्य अकादेमी सम्मान) २०१४

विदेह भाषा सम्मान
(समानान्तर साहित्य अकादेमी सम्मान)
२०१४ मूल पुरस्कार- श्री नन्द विलास राय (सखारी पेटारी- लघु कथा संग्रह)
२०१४ बाल पुरस्कार- श्री जगदीश प्रसाद मण्डल (नै धारैए- बाल उपन्यास)
२०१४ युवा पुरस्कार - श्री आशीष अनचिन्हार (अनचिन्हार आखर- गजल संग्रह)
२०१५ अनुवाद पुरस्कार - श्री शम्भु कुमार सिंह ( पाखलो-  तुकाराम रामा शेटक कोंकणी उपन्यासक मैथिली अनुवाद)

गुरुवार, 21 अगस्त 2014

माएक भक्त


दिल्लीसँ पटना जएबाक सम्पूर्ण क्रांतिक द्वितीय श्रेणीक स्लीपर किलासक डिब्बा, भीड़सँ खचा-खच भरल। तीन सीटक जगहपर पाँच-पाँचटा लोक बैसल। साँझक साढ़े पाँच बजे ट्रेन अपन नियत समयसँ चलल। दना-दन पूर्ण गतिसँ ट्रेन चलि रहल छल। रातिक लगभग आठ बजे पेंटीगार्ड बला हाथमे एकटा पुर्जी नेने “भोजन, भोजन बाजू।” अबाज दैत, पुर्जीपर सीट नम्बर लिखैत आगू बढ़ि रहल छल।
संतोष, ठीक-ठाक भेष-भूषामे देखै कए समृद्ध घरक लागि रहल छल। जखन पेंटीगार्ड बला संतोष लग गेल तँ संतोषक बगलमे बैसल तीन गोटेक ग्रुपमे सँ एकटा २०-२१ बर्खक युवक चट्टे बाजि उठल, “हम तँ गरीब आदमी छी एतेक महग खाना नहि लेब।”
संतोषक मोन ओहि नवयुवकक उतरसँ आहत भेलै आ तैँ ओ ओहि युवकसँ बाजि उठल, “एहि दुनियाँमे कियो अमीर गरीब नहि छैक, ई सबटा लोकक अपन-अपन मनक भ्रम छैक। आजुक घड़ीमे सभ कियो अमीरे अछि, बस अपनामे बिस्वास आ किछु नम्हर करैक इक्षा होबाक चाही।”
“हम सभ पाँच-सात हजार रुपैया महिना कमाइ बला तँ गरीबे भेलहुँ ने।”
“गरीब कोना भेलहुँ ? अप्पन एकटा हाथ एक लाखमे देबै।”
“नहि।”
“दोसर हाथक एक लाख रुपैया आओर भेटत।”
“नहि।”
आगू संतोष ओकरासँ किछु आओर बुझिते वा किछु गप्प करिते की संतोषक आगूक सीटपर बैसल एकटा बेस पुष्ट, चानन ठोप टिकी रखने भेष भूषासँ नीक विद्वान लागि रहल छला, झटसँ बाजि परला, “हमरा एक लाख रुपैया दिअ हम अप्पन हाथ दै छी।”
“एना नै भए सकै छै, एक लाख रुपैयामे कियो स्वस्थ जबान आदमी अपन हाथ कोना देतै।”
“हम देब ने, लाबू हमरा एक लाख रुपैया।”
दोसरो दोसरो सभ, “नहि ! एना तँ नहि भऽ सकैए, कियो एक लाख रुपैयामे अपन हाथ कोना दए देतै।”
संतोष, “जकरा अपन भगवानपर आ अपनापर विश्वास छै, अपन माए-बाबू धिया-पुतासँ सिनेह छै ओ एक लाखमे कि कड़ोरो रुपैयामे अपन अंग नहि देतै।”
“देतै किएक नहि, दुनियाँमे देखियौ आइ लोक सय-सय रुपैया लेल दोसरक जान लऽ लय छै।“
“हाँ ई गप्प सत छै, सय-सय रुपैयामे लोक लोकक जान लऽ लय छै। एक्सीडेंटमे छन्नमे लोकक जान चलि जाइ छै। हारी बीमारी, दाही रौदीमे परिवारक परिवारक खत्म भऽ जाइ छैक। डिफ्रेशनमे लोक अपने जान अपने लऽ लय छै। ई सभ एकटा भिन्न विषय बस्तु छैक मुदा एक गोट व्यक्ति मात्र एहि द्वारे कि ओ गरीब अछि अपन अंग बेच देतै, हमरा हिसाबे ई तँ नहि हेतै।“
सामने बलाकेँ भरिसक बुझाबैक चेष्टामे संतोष बाजल, मुदा ओ जिद्द आ बहसकेँ आगू रखैक चेष्टामे एकदम तनैत बाजल, “ई सभ रहै दिऔ ने, अहाँ एक लाख रुपैया दिअ हम अपन हाथ दै छी।”
हुनक जिद्द आ तामससँ मिश्रित गप्पसँ संतोष अपनापर काबू नहि राखि सकल आ खिसिया कए बाजल, “उतरु अगिला स्टेशनपर अपन हाथ कोनो चलैत ट्रेनकेँ सोझाँ राखू, हाथ कटैत मांतर हम अहाँकेँ एक लाख रुपैया देब।”
“नहि एना नहि पहिने पाइ राखू।”
“से किएक, पहिने एटीएम मशीनमे कार्ड दै छै तकर बाद ने पाइ अबै छै, तेनाहिते अहाँ अप्पन हाथ ट्रेनक निच्चा राखू हाथ कटैत देरी हम एक नहि दस लाख रुपैया देब।”
“रहए दियौ रहए दियौ, दस लाख रुपैयाक अहाँक ओकाइतो अछि।”
“हमर ओकाइत छोरु, अपन हाथ काटू  हाथ कटैत देरी हम अहाँकेँ दस लाख रुपैया देब।”
‘-------- बस एनाहिते, जे सभ नहि बजबा चाही सेहो सभ दुनूमे होबए लागल करीब आधा घंटाक बहसकेँ बाद दोसर दोसरकेँ हस्तक्षेपक बाद बहस कनीक शांत भेल ख़त्म नहि।
“अहाँ एखन दुनियाँ नहि देखलिऐए लोक पाइ द्वारे की की करै छै, अपन किडनी धरि बेच दैत छै।”
“हाँ बेच दै छै मुदा ओहेन ओहेन लोककेँ किछु विशेष मजबूरी वा परिस्थिति होइत छैक अथवा ओकरा भगवान आ अपनापर तनिको भरोसा नहि हेतै।”
“तँ हमर कि मजबूरी अछि अहाँ बुझै छीऐ ?”
“नहि हम तँ अहाँक मजबूरी किछु नहि बुझै छी।”
“तहन अहाँ कोना कहैत छी जे हम दस लाखमे अपन हाथ नहि देबै।”
“देखयौ अहाँक मजबूरी हमरा ठीके नहि बुझल मुदा रुपैयासँ कतेक दिन चलत आ एहि हाथसँ जीवन भरि कमा खा सकै छी।”
“अहाँक गप्प ठीक अछि मुदा जखन ओहेन परिस्थिति अबैत छैक तँ लोककेँ आगू पाछू ताकैक शामर्थ खत्म भऽ जाइ छै।”
संतोष, “अपना जगह अहूँ ठीके छी, बिचमे हम बहुत कटू बजलहुँ, क्षमा करब  मुदा एतेक काल तक नीक बेजए बहसक बाद हम एतेक तँ जानैक उम्मीद रखै छी जे अहाँ अपन मजबूरी हमरा बताबी।” “हमर माए दू बर्खसँ बहुत दुखीत छथि। दरिभंगासँ पटना, पटनासँ आब दिल्ली एम्सक पाँच माससँ चक्कर काटि रहल छी। कोनो समाधान नहि।”
“एम्समे कि कहैत अछि ?”
“कहैत छैक प्रोस्टेज बढ़ल छनि ओपरेशन हेतैन, पतनोमे इहे कहलक मुदा ओतए ओपरेशनक व्यबस्था नहि। दिल्लीमे चारि माससँ खाली तरह तरहकेँ टेस्ट कएला बाद आब कहैत अछि जे ओपरेशन हेतैन आ ओपरेशनक तारीख आँगा छह मास बाद देने अछि। छह महिनामे हुनका कि हेतैन ....। प्राइवेटसँ ओपरेशन कराबी तँ लाख रुपैयाक खर्चा आ हमरा सभ लग जे किछु छल पहिने बेच-बिचुन कए सबटा लगा देलीऐ।” ई कहैत माएक प्रति सिनेह आ अपन लचारीसँ हुनक आँखि नम भए गेलन्हि।
“आगू दिल्ली कहिया जाएब ?”
“ओपरेशनक तारीख तँ छह महिना बादक भेटलन्हि मुदा दबाइ खाइत महिनामे एक बेर एम्स आबैक लेल कहने अछि।”
“आब कहिया एम्स जा रहल छी ?”
“इहे मासम दिन बाद पन्द्रह तारीख केर टिकट अछि।”
“आब एम्स जाएब तँ हमरा फोन कए लेब, भए सकत तँ हम किछु सहायक होएब।”
“कोना, कोनो डॉक्टरकेँ चिन्है छीयै।”
‘हाँ।”
“तँ हमरा हुनकर फोन नम्बर दए दिअ, नहि तँ हमरा एखने एक बेर गप्प करा दिअ।”
एखन नहि हम गप्प करा सकैत छी आ नहि हम हुनकर नम्बर दए सकै छी किएक तँ केकरो नम्बर देनाइ एलाव नहि छैक। हाँ अहाँ जखन जाएब हमरा फोन करब हमर फोन नम्बर लए लिअ। एकटा मनुक्ख बुते जतेक सहायता भऽ सकैत छै, अहाँकेँ भेटत बांकी माँ भगवतीक हाथमे।”
“रहए दियौ, अहाँ एनाहिते बड़का बड़का फेकै छी, कनिक काल पहिने एक हाथक बदला दस लाख रुपैया दैत छलहुँ आ आब एम्समे अहाँक जान पहचान भए गेल। डॉक्टरक नम्बर मांगै छी तँ एलव नहि छैक। एलव किएक नहि रहतै एखनो हमरा लग चारि-चारिटा डॉक्टरक नम्बर अछि मुदा किनकोसँ कोनो मदत नहि भेटल।”
“अहाँ एहेन बड़का बड़का फेकै बला गप्प कहि कए हमारा उलाहना किएक दैत छी। ई गप्प अहाँ जखन कहितहुँ जखन हम अहाँक किछु गछि कए नहि दैतहुँ आ कि नहि करितहुँ। एहन तँ नहि भेलए। हाथ बला गप्पमे अहाँक हाथ अहाँ लग आ हमर पाइ हमरा लग। रहल एम्स बला गप्प तँ महिने महिने अहाँ जाइते छी, एक बेर हामरोसँ गप्प कए लेब किछु सहायक भेलहुँ तँ ठीक नहि तँ अहाँकेँ नुकसाने की ? हाँ ओकर बादक अप्पन दुनूक भेटमे अहाँ हमरा एहि तरहक अनरगल गप्प कहि सकैत छी।” ई कहि संतोष एकटा पुर्जापर अपन नाम संतोष आ मोबाईल नम्बर लिख हुनका दए देला। सामने बला सेहो अनमोनो मने ओहि पुर्जाकेँ अपन जेबीमे राखि लेला।
एक महिना बाद, दिल्ली एम्समे। ओहे संतोषक सामने बला सबारी, अप्पन माएक संगे। हाथमे मो० फोन रखने आ ओहिमे संतोषक नम्बर शेव कएने एहि गुनधुनमे कि फोन करू की नहि, “झुठ्ठेकेँ ठकि गेल होएत, ठकनेहेँ होएत तँ हमर की लय लेत, एक बेर फोन कइए लै छी।” नम्बर लगेलक चट्टे घंटी बाजल, “ट्रिन ट्रिन .......”
“हेलो” दोसर कातसँ
“के संतोषजी ?”
“जी हाँ, अहाँ के ?”
“जी हम मुरारी, महिना भरि पहिने अपन दुनू दिल्लीसँ पटना जाए काल ट्रेनमे भेट भेल रही। अहाँ हमर एक हाथक बदला दस लाख रुपैया दै लेल तैयार रही।”
“हाँ हाँ मुरारीजी हमरा सबटा इआद आबि गेल, कहू की समाचार, माए केहएन छथि?”
“समाचार की कहू, ओहे माएकेँ लऽ कए दिल्ली आएल छी। सोचलहुँ एक बेर अपनेकेँ कहि दी।”
“हाँ हाँ बड्ड नीक केलहुँ, एम्स कहिया अबै छी ?”
“एखन एम्सेमे छी।”
“अच्छा ! कोन यूनिटमे देखाबैक अछि ?”
“प्रो० एस० चौधरीक यूनिटमे।”
“अच्छा, माता जीक की नाम छनि ?”
“सरोज देवी।”
“ठीक छैक, अहाँ आबू।” उम्हरसँ फोन बंद।
मुरारीजी सोचै लागला, “भेल, सभ गप्प सुनला बाद फोन बंद कए देला। हिनको बुते किछु नहि होएत।”
मोन मसुआ कए आगू बिदा भेला। करीब आधा घंटा पएरे चलला बाद साढ़े दस बजे ओपीडी पुर्जापर तारीखक मोहर लगा कए प्रो० एस० चौधरी यूनिट पहुँचला। पुर्जा डॉक्टर कक्षकेँ द्वारिपर ठार अर्दलीकेँ दऽ बाहर वेटिंग कुर्सीपर माए संगे अपनों बसि रहला। हुनकासँ पहिने करिव ४०-४५ गोते वेटिंग कुर्सीपर बैसल। भीर देखि ओ सोचए लागला, “भेल फोन करक चक्करमे आधा घंटा देरी भए गेल आ ओकर परिणाम आइ दू बजेसँ पहिने नम्बर आबैक कोनो भरोसा नहि।”
मुरारीजी बीतल दू बर्खक दिक्कत आ कष्टक खाका मोने मोन तैयार करैत रहथि। एगारह बजे अर्दली अबाज देलक, “सरोज देवी।”
मुरारीजी हरबरा कऽ उठला, “ई की कतए दू बजे नम्बर आबैक उम्मीद छल आ कतए ११ बजे न० आबि गेल। हमरासँ पहिलुक सभ तँ एखन ओनाहिते बैसल अछि। मुस्किलसँ तीनो गोटा नैँ देखेलकैए।” दिमाग सोचैत मुदा शरीर एतबामे माए सहीत डॉक्टर लग। माए डॉक्टर लग जा पेशेंटक बास्ते बनल टूलपर बसि रहली। मुरारीजी हुनकेँ पांजर लागि ठार। डॉक्टर माएक पुर्जापर हुनक नाम देखते मातर पहिने हुनका दुनू हाथ जोरि प्रणाम कएलनि आ ओकर बाद धियानसँ हुनकर पुरनका पुर्जा सभ देखला बाद अंदर केबिनमे लए जा कए नीकसँ जाँच केलनि। केविनस बाहर आबि आठ दसटा जाँचक पुर्जा बना कए दैत, अर्दलीकेँ अबाज देलन्हि, अर्दलीकेँ लग एला बाद, “माँ जीक संगे जाउ आ सबटा टेस्ट एखने अपने संगे पूरा करा कए हाथो हाथ नेने आबू।”
“जी” कहैत अर्दली डॉक्टरसँ पुर्जा सभ लेला बाद माएसँ, “चलू।”
मुरारीजी आ हुनकर माए अर्दलीक पाँछा पाँछा स्वचालित मसीन जकाँ बिदा भए गेला। जतए जतए अर्दली लए गेलनि ततए ततए जाइत रहला करीब दू घंटा बाद सबटा टेस्ट जेना इसीजी, अल्ट्रासाउन्ड,एक्स-रे, खून पेशाब आदिक जाँच भेला बाद पुनः ओहिठाम डॉक्टर लग आपस एला। डॉक्टर सबटा रिपोर्टकेँ गंभीरतासँ देखला बाद, “हाँ रिपोर्ट सबहक अनुसार प्रोस्टेज बढ़ल छनि आ ओकर जल्दी ओपरेशन नहि भेलासँ किडनी डेमेज भऽ सकैए। एना करू (किछु हुनक पुर्जापर लिखैत) ई ई दबाइ खेला बाद परसु आबि कए माँ जीकेँ भारती करा दियौन। परसु एगारह बजे ओपरेशन हेतनि।”
मुरारीजी हक्का बक्का ई कि भए रहल छैक जाहि ओपरेशनकेँ लेल छह महिना बादक तारीख भेटल छल ओ आइ दू दिन बाद कोना। भारतमे चिकित्सा व्यवस्था एतेक चुस्त दुरुस्त कोना भए गेल ओहो एम्स एहेन सरकारी अस्पतालक। अपन उत्सुकतापर ओ नियन्त्रण नहि राखि पएला आ डॉक्टरसँ पुछिए बैसला, “डॉक्टर साहब माफ करब एकटा गप्प पुछि रहल छी, जाहि ओपरेशन कराबै लेल हम सभ दू बर्खसँ हरान आ निरास छलहुँ, अहूँ लग करीब छह महिनासँ दौर रहल छलहुँ, पिछला महिना अहीँ छह महिना आगूक तारीख देने रहि। आइ दू घंटामे सबटा टेस्टक रिपोर्ट हाथे हाथ आ दू दिन बाद ओपरेशन ई चमत्कार कोना।”
“एहिमे चमत्कार केर कोन गप्प, पहिने हमरा सभकेँ कहाँ बुझल जे अपने प्रोफेसर साहबकेँ सम्बन्धी छियनि।”
“कुन प्रो० साहब।”
“अरे अपन प्रो० साहब जिनक ई यूनिट अछि, प्रो० एस० चौधरी।“
“प्रो० एस० चौधरी आ हमर सम्बन्धी।” मुदा एहि गप्पकेँ मुरारीजी अपन मोनेमे रखने रहला मुँहसँ बाहर नहि निकालला। आगू डॉक्टरसँ, “अपनेसँ कनी निवेदन छल।”
“की कहू ने।”
“कनिक प्रो० साहबसँ भेट भऽ जाइते।”
“किएक नहि, हमरा सबहक दिससँ अपनेक सेवामे कोनो कमी तँ नहि रहल।”
“नै नै, ई कि कहै छी, बस कनी हुनकासँ भेट करक लौलसा छल।”
डॉक्टर साहब अर्दलीकेँ कहैत, “हिनका भीतर प्रोफेसर साहबकेँ केबिनमे नेने जइयौन्ह।”
मुरारीजी आ माए अर्दली संगे बिदा भेला, पाँच मिनट पएरे चलला बाद एकटा लग्जरी एसी केविन, बाहर बोर्डपर लिखल, यूनिट प्रो० डॉ एस चौधरी। अर्दली केबार खोललक तिनु भीतर गेला। भीतर प्रो० एस चौधरी केबारक दिस पीठ कए कऽ एकटा नम्हर लग्जरी कुर्सीपर बैसल आ हुनकर सामने बैसल तीनटा डॉक्टर हुनकासँ परामर्श लैत। केबार खुजलासँ हुनको धियान उम्हर गेलनि। घूरि देखला तँ मुरारीजी आ हुनका बुझैमे देरी नहि लगलनि जे हुनक संगे हुनकर माए छथिन चट्टे गोर लागि आशीर्वाद लेलनि। माएकेँ गोर लागैत देख बांकीकेँ तीनु डॉ सीटसँ उठि ठार भए गेल। डॉ एस चौधरी आन डॉक्टरसँ,  “excuse me, we will meet after five minute later   तीनू डॉक्टर कक्षसँ बाहर चलि गेला। मुरारीजी आश्चर्जसँ, “अहाँ आ एहिठाम, एस चौधरी यानी संतोष चौधरी।” संतोष हुनका दिस देखि मंद मंद मुस्काइत।
मुरारीजी संतोषक पएरपर झुकैक चेष्टामे मुदा ओहिसँ पहिने संतोष हुनका उठा अपन करेजासँ लगा लेलनि। मुरारी, “हमरा क्षमा कए देब, अहाँक बारेमे हम कि कि सोचैत छलहुँ, ओहि दिन ट्रेनमे हम नै जानि कि कि कहि देलहुँ, क्षमा कए दिअ।”
संतोष, “की सभ अनाप सनाप बजै छी। ओहि दिनका गप्प सप्पकेँ बिसरि जाउ। आब ई कहू जे माएक इलाजमे कोनो कमी आ बाधा तँ नहि।”
“कमी, आब कोनो कमी नै, परसु ओपरेशन होबैक निश्चित भेले।”
“हाँ, हमर आइ आ काल्हि केर समय पहिने बुक छल, परसु करीब दू घंटाक समय हमरा लग खाली छल ओहिमे हम माँजीक ओपरेशन करबनि।”
“अहाँक ई उपकार हम जीवन भरि नहि बिसरब, हमरा लेल तँ अपने साक्षात भगवान बनि एलहुँ।”
ई की आब अहाँ हमर दोस्त छी आ दोस्तीमे कोनो उपकार कोना आ ओनाहितो ई अस्पताल हमर तँ नहि सरकारक अछि।”
“अहाँ जे कहू सरकारक हिसाबे तँ ओपरेशनक छह महिना बादक समय भेटल छल।”
“हमहूँ सभ की करबै, एतेक भीड़ भार छैक जे नम्बर लगाबए परैए छैक एक दिनमे सात आठटा ओपरेशन होइत छैक एहि हिसाबे एवरेज निकाइल कए ककरो तारीख देल जाइ छैक। सिस्टमे एहन छैक। एकरा सभकेँ छोरु, ई कहू ठहरल कतए छी, कोनो दिक्कत तँ नहि।”
“नहि, कोनो दिक्कत नहि जे दिक्कत छल अपने दूर कए देलहुँ आब माँ भगवतीक हाथमे।”
“ठीक छै तँ परसु फेर भेट हेतै।”
“ठीक मुदा एकटा प्रश्न पूछब अपनेसँ।”
“की ?”
“एतेक पघि डॉक्टर भए कऽ अहाँ ओहि दिन द्वितीय श्रेणीक स्लीपर किलासमे किएक ?”
संतोष हँसैत हँसैत, “हा हा हा, द्वितीय श्रेणीक स्लीपर किलासमे नहि रहितहुँ तँ अपनेसँ कोना भेट होइते। (गप्पकेँ बदलैत) हम अपने जकाँ माएक एतेक भक्त तँ नहि छी जे अपन हाथ कटवा दि मुदा एतेक सिनेह तँ अपन माएसँ करिते छी जे हुनका लेल द्वितीय श्रेणीक स्लीपर किलासमे एक दिन यात्रा कए सकी।”
“से की नहि बुझलहुँ ?”
“बात ई कि हम सभ मुलतः मधुबनी जिलाक छी मुदा २५-२६ बर्ख पहिने हमर बाबूजी पटना शिप्ट कए गेला। एखन हमर परिवार सभ पटनेमे छथि। ओहि दिन भोरे एकाएक पटनामे हमर माएक मोन बड्ड खराप भए लेल रहनि। आब १०-१२ घंटामे नहि कोनो एयरलाइंसक टिकट आ नहि कोनो ट्रेनक प्रथम वा कोनो एसीक टिकट भेटल मुदा गेनाइ जरूरी छल तहन कोनो दलालसँ एकटा द्वितीय श्रेणीक स्लीपर किलासक टिकट भेटल आ ओहि बिधि अपनेसँ भेट होबैक उपरबलाक कोनो प्रयोजन रहल हेतनि। किएक तँ घर पहुचैत पहुचैत माएओ एकदम ठीक छली। दिनभरि रहि अगिला दिन भोरे हवाई जहाजसँ आपस आबि ड्यूटी केलहुँ।” 

*****जगदानन्द झा 'मनु'