की अहाँ बिना कोनो रूपैया-पैसा लगोने अप्पन वेपार कय लाखो रूपया महीना कमाए चाहै छी ? वेलनेस इंडस्ट्रीज़मे। संपूर्ण भारत व नेपालमे पूर्ण सहयोग। sadhnajnjha@gmail.com पर e-mail करी Or call to Manish Karn Mo. 91 95600 73336

रविवार, 24 अगस्त 2014

८३म सगर राति दीप जरय नन्द विलास रायक संयोजकत्वमे

८३म सगर राति दीप जरय नन्द विलास रायक संयोजकत्व मे भपटियाहीमे ३० अगस्त संध्या ६ बजे सँ ३१ अगस्त भोर ६ बजे धरि आयोजित अछि। ई आयोजन नारी केन्द्रित लघु आ विहनि कथापर आयोजित अछि। अहाँ सादर आमंत्रित छी।

विदेह भाषा सम्मान (समानान्तर साहित्य अकादेमी सम्मान) २०१४

विदेह भाषा सम्मान
(समानान्तर साहित्य अकादेमी सम्मान)
२०१४ मूल पुरस्कार- श्री नन्द विलास राय (सखारी पेटारी- लघु कथा संग्रह)
२०१४ बाल पुरस्कार- श्री जगदीश प्रसाद मण्डल (नै धारैए- बाल उपन्यास)
२०१४ युवा पुरस्कार - श्री आशीष अनचिन्हार (अनचिन्हार आखर- गजल संग्रह)
२०१५ अनुवाद पुरस्कार - श्री शम्भु कुमार सिंह ( पाखलो-  तुकाराम रामा शेटक कोंकणी उपन्यासक मैथिली अनुवाद)

गुरुवार, 21 अगस्त 2014

माएक भक्त


दिल्लीसँ पटना जएबाक सम्पूर्ण क्रांतिक द्वितीय श्रेणीक स्लीपर किलासक डिब्बा, भीड़सँ खचा-खच भरल। तीन सीटक जगहपर पाँच-पाँचटा लोक बैसल। साँझक साढ़े पाँच बजे ट्रेन अपन नियत समयसँ चलल। दना-दन पूर्ण गतिसँ ट्रेन चलि रहल छल। रातिक लगभग आठ बजे पेंटीगार्ड बला हाथमे एकटा पुर्जी नेने “भोजन, भोजन बाजू।” अबाज दैत, पुर्जीपर सीट नम्बर लिखैत आगू बढ़ि रहल छल।
संतोष, ठीक-ठाक भेष-भूषामे देखै कए समृद्ध घरक लागि रहल छल। जखन पेंटीगार्ड बला संतोष लग गेल तँ संतोषक बगलमे बैसल तीन गोटेक ग्रुपमे सँ एकटा २०-२१ बर्खक युवक चट्टे बाजि उठल, “हम तँ गरीब आदमी छी एतेक महग खाना नहि लेब।”
संतोषक मोन ओहि नवयुवकक उतरसँ आहत भेलै आ तैँ ओ ओहि युवकसँ बाजि उठल, “एहि दुनियाँमे कियो अमीर गरीब नहि छैक, ई सबटा लोकक अपन-अपन मनक भ्रम छैक। आजुक घड़ीमे सभ कियो अमीरे अछि, बस अपनामे बिस्वास आ किछु नम्हर करैक इक्षा होबाक चाही।”
“हम सभ पाँच-सात हजार रुपैया महिना कमाइ बला तँ गरीबे भेलहुँ ने।”
“गरीब कोना भेलहुँ ? अप्पन एकटा हाथ एक लाखमे देबै।”
“नहि।”
“दोसर हाथक एक लाख रुपैया आओर भेटत।”
“नहि।”
आगू संतोष ओकरासँ किछु आओर बुझिते वा किछु गप्प करिते की संतोषक आगूक सीटपर बैसल एकटा बेस पुष्ट, चानन ठोप टिकी रखने भेष भूषासँ नीक विद्वान लागि रहल छला, झटसँ बाजि परला, “हमरा एक लाख रुपैया दिअ हम अप्पन हाथ दै छी।”
“एना नै भए सकै छै, एक लाख रुपैयामे कियो स्वस्थ जबान आदमी अपन हाथ कोना देतै।”
“हम देब ने, लाबू हमरा एक लाख रुपैया।”
दोसरो दोसरो सभ, “नहि ! एना तँ नहि भऽ सकैए, कियो एक लाख रुपैयामे अपन हाथ कोना दए देतै।”
संतोष, “जकरा अपन भगवानपर आ अपनापर विश्वास छै, अपन माए-बाबू धिया-पुतासँ सिनेह छै ओ एक लाखमे कि कड़ोरो रुपैयामे अपन अंग नहि देतै।”
“देतै किएक नहि, दुनियाँमे देखियौ आइ लोक सय-सय रुपैया लेल दोसरक जान लऽ लय छै।“
“हाँ ई गप्प सत छै, सय-सय रुपैयामे लोक लोकक जान लऽ लय छै। एक्सीडेंटमे छन्नमे लोकक जान चलि जाइ छै। हारी बीमारी, दाही रौदीमे परिवारक परिवारक खत्म भऽ जाइ छैक। डिफ्रेशनमे लोक अपने जान अपने लऽ लय छै। ई सभ एकटा भिन्न विषय बस्तु छैक मुदा एक गोट व्यक्ति मात्र एहि द्वारे कि ओ गरीब अछि अपन अंग बेच देतै, हमरा हिसाबे ई तँ नहि हेतै।“
सामने बलाकेँ भरिसक बुझाबैक चेष्टामे संतोष बाजल, मुदा ओ जिद्द आ बहसकेँ आगू रखैक चेष्टामे एकदम तनैत बाजल, “ई सभ रहै दिऔ ने, अहाँ एक लाख रुपैया दिअ हम अपन हाथ दै छी।”
हुनक जिद्द आ तामससँ मिश्रित गप्पसँ संतोष अपनापर काबू नहि राखि सकल आ खिसिया कए बाजल, “उतरु अगिला स्टेशनपर अपन हाथ कोनो चलैत ट्रेनकेँ सोझाँ राखू, हाथ कटैत मांतर हम अहाँकेँ एक लाख रुपैया देब।”
“नहि एना नहि पहिने पाइ राखू।”
“से किएक, पहिने एटीएम मशीनमे कार्ड दै छै तकर बाद ने पाइ अबै छै, तेनाहिते अहाँ अप्पन हाथ ट्रेनक निच्चा राखू हाथ कटैत देरी हम एक नहि दस लाख रुपैया देब।”
“रहए दियौ रहए दियौ, दस लाख रुपैयाक अहाँक ओकाइतो अछि।”
“हमर ओकाइत छोरु, अपन हाथ काटू  हाथ कटैत देरी हम अहाँकेँ दस लाख रुपैया देब।”
‘-------- बस एनाहिते, जे सभ नहि बजबा चाही सेहो सभ दुनूमे होबए लागल करीब आधा घंटाक बहसकेँ बाद दोसर दोसरकेँ हस्तक्षेपक बाद बहस कनीक शांत भेल ख़त्म नहि।
“अहाँ एखन दुनियाँ नहि देखलिऐए लोक पाइ द्वारे की की करै छै, अपन किडनी धरि बेच दैत छै।”
“हाँ बेच दै छै मुदा ओहेन ओहेन लोककेँ किछु विशेष मजबूरी वा परिस्थिति होइत छैक अथवा ओकरा भगवान आ अपनापर तनिको भरोसा नहि हेतै।”
“तँ हमर कि मजबूरी अछि अहाँ बुझै छीऐ ?”
“नहि हम तँ अहाँक मजबूरी किछु नहि बुझै छी।”
“तहन अहाँ कोना कहैत छी जे हम दस लाखमे अपन हाथ नहि देबै।”
“देखयौ अहाँक मजबूरी हमरा ठीके नहि बुझल मुदा रुपैयासँ कतेक दिन चलत आ एहि हाथसँ जीवन भरि कमा खा सकै छी।”
“अहाँक गप्प ठीक अछि मुदा जखन ओहेन परिस्थिति अबैत छैक तँ लोककेँ आगू पाछू ताकैक शामर्थ खत्म भऽ जाइ छै।”
संतोष, “अपना जगह अहूँ ठीके छी, बिचमे हम बहुत कटू बजलहुँ, क्षमा करब  मुदा एतेक काल तक नीक बेजए बहसक बाद हम एतेक तँ जानैक उम्मीद रखै छी जे अहाँ अपन मजबूरी हमरा बताबी।” “हमर माए दू बर्खसँ बहुत दुखीत छथि। दरिभंगासँ पटना, पटनासँ आब दिल्ली एम्सक पाँच माससँ चक्कर काटि रहल छी। कोनो समाधान नहि।”
“एम्समे कि कहैत अछि ?”
“कहैत छैक प्रोस्टेज बढ़ल छनि ओपरेशन हेतैन, पतनोमे इहे कहलक मुदा ओतए ओपरेशनक व्यबस्था नहि। दिल्लीमे चारि माससँ खाली तरह तरहकेँ टेस्ट कएला बाद आब कहैत अछि जे ओपरेशन हेतैन आ ओपरेशनक तारीख आँगा छह मास बाद देने अछि। छह महिनामे हुनका कि हेतैन ....। प्राइवेटसँ ओपरेशन कराबी तँ लाख रुपैयाक खर्चा आ हमरा सभ लग जे किछु छल पहिने बेच-बिचुन कए सबटा लगा देलीऐ।” ई कहैत माएक प्रति सिनेह आ अपन लचारीसँ हुनक आँखि नम भए गेलन्हि।
“आगू दिल्ली कहिया जाएब ?”
“ओपरेशनक तारीख तँ छह महिना बादक भेटलन्हि मुदा दबाइ खाइत महिनामे एक बेर एम्स आबैक लेल कहने अछि।”
“आब कहिया एम्स जा रहल छी ?”
“इहे मासम दिन बाद पन्द्रह तारीख केर टिकट अछि।”
“आब एम्स जाएब तँ हमरा फोन कए लेब, भए सकत तँ हम किछु सहायक होएब।”
“कोना, कोनो डॉक्टरकेँ चिन्है छीयै।”
‘हाँ।”
“तँ हमरा हुनकर फोन नम्बर दए दिअ, नहि तँ हमरा एखने एक बेर गप्प करा दिअ।”
एखन नहि हम गप्प करा सकैत छी आ नहि हम हुनकर नम्बर दए सकै छी किएक तँ केकरो नम्बर देनाइ एलाव नहि छैक। हाँ अहाँ जखन जाएब हमरा फोन करब हमर फोन नम्बर लए लिअ। एकटा मनुक्ख बुते जतेक सहायता भऽ सकैत छै, अहाँकेँ भेटत बांकी माँ भगवतीक हाथमे।”
“रहए दियौ, अहाँ एनाहिते बड़का बड़का फेकै छी, कनिक काल पहिने एक हाथक बदला दस लाख रुपैया दैत छलहुँ आ आब एम्समे अहाँक जान पहचान भए गेल। डॉक्टरक नम्बर मांगै छी तँ एलव नहि छैक। एलव किएक नहि रहतै एखनो हमरा लग चारि-चारिटा डॉक्टरक नम्बर अछि मुदा किनकोसँ कोनो मदत नहि भेटल।”
“अहाँ एहेन बड़का बड़का फेकै बला गप्प कहि कए हमारा उलाहना किएक दैत छी। ई गप्प अहाँ जखन कहितहुँ जखन हम अहाँक किछु गछि कए नहि दैतहुँ आ कि नहि करितहुँ। एहन तँ नहि भेलए। हाथ बला गप्पमे अहाँक हाथ अहाँ लग आ हमर पाइ हमरा लग। रहल एम्स बला गप्प तँ महिने महिने अहाँ जाइते छी, एक बेर हामरोसँ गप्प कए लेब किछु सहायक भेलहुँ तँ ठीक नहि तँ अहाँकेँ नुकसाने की ? हाँ ओकर बादक अप्पन दुनूक भेटमे अहाँ हमरा एहि तरहक अनरगल गप्प कहि सकैत छी।” ई कहि संतोष एकटा पुर्जापर अपन नाम संतोष आ मोबाईल नम्बर लिख हुनका दए देला। सामने बला सेहो अनमोनो मने ओहि पुर्जाकेँ अपन जेबीमे राखि लेला।
एक महिना बाद, दिल्ली एम्समे। ओहे संतोषक सामने बला सबारी, अप्पन माएक संगे। हाथमे मो० फोन रखने आ ओहिमे संतोषक नम्बर शेव कएने एहि गुनधुनमे कि फोन करू की नहि, “झुठ्ठेकेँ ठकि गेल होएत, ठकनेहेँ होएत तँ हमर की लय लेत, एक बेर फोन कइए लै छी।” नम्बर लगेलक चट्टे घंटी बाजल, “ट्रिन ट्रिन .......”
“हेलो” दोसर कातसँ
“के संतोषजी ?”
“जी हाँ, अहाँ के ?”
“जी हम मुरारी, महिना भरि पहिने अपन दुनू दिल्लीसँ पटना जाए काल ट्रेनमे भेट भेल रही। अहाँ हमर एक हाथक बदला दस लाख रुपैया दै लेल तैयार रही।”
“हाँ हाँ मुरारीजी हमरा सबटा इआद आबि गेल, कहू की समाचार, माए केहएन छथि?”
“समाचार की कहू, ओहे माएकेँ लऽ कए दिल्ली आएल छी। सोचलहुँ एक बेर अपनेकेँ कहि दी।”
“हाँ हाँ बड्ड नीक केलहुँ, एम्स कहिया अबै छी ?”
“एखन एम्सेमे छी।”
“अच्छा ! कोन यूनिटमे देखाबैक अछि ?”
“प्रो० एस० चौधरीक यूनिटमे।”
“अच्छा, माता जीक की नाम छनि ?”
“सरोज देवी।”
“ठीक छैक, अहाँ आबू।” उम्हरसँ फोन बंद।
मुरारीजी सोचै लागला, “भेल, सभ गप्प सुनला बाद फोन बंद कए देला। हिनको बुते किछु नहि होएत।”
मोन मसुआ कए आगू बिदा भेला। करीब आधा घंटा पएरे चलला बाद साढ़े दस बजे ओपीडी पुर्जापर तारीखक मोहर लगा कए प्रो० एस० चौधरी यूनिट पहुँचला। पुर्जा डॉक्टर कक्षकेँ द्वारिपर ठार अर्दलीकेँ दऽ बाहर वेटिंग कुर्सीपर माए संगे अपनों बसि रहला। हुनकासँ पहिने करिव ४०-४५ गोते वेटिंग कुर्सीपर बैसल। भीर देखि ओ सोचए लागला, “भेल फोन करक चक्करमे आधा घंटा देरी भए गेल आ ओकर परिणाम आइ दू बजेसँ पहिने नम्बर आबैक कोनो भरोसा नहि।”
मुरारीजी बीतल दू बर्खक दिक्कत आ कष्टक खाका मोने मोन तैयार करैत रहथि। एगारह बजे अर्दली अबाज देलक, “सरोज देवी।”
मुरारीजी हरबरा कऽ उठला, “ई की कतए दू बजे नम्बर आबैक उम्मीद छल आ कतए ११ बजे न० आबि गेल। हमरासँ पहिलुक सभ तँ एखन ओनाहिते बैसल अछि। मुस्किलसँ तीनो गोटा नैँ देखेलकैए।” दिमाग सोचैत मुदा शरीर एतबामे माए सहीत डॉक्टर लग। माए डॉक्टर लग जा पेशेंटक बास्ते बनल टूलपर बसि रहली। मुरारीजी हुनकेँ पांजर लागि ठार। डॉक्टर माएक पुर्जापर हुनक नाम देखते मातर पहिने हुनका दुनू हाथ जोरि प्रणाम कएलनि आ ओकर बाद धियानसँ हुनकर पुरनका पुर्जा सभ देखला बाद अंदर केबिनमे लए जा कए नीकसँ जाँच केलनि। केविनस बाहर आबि आठ दसटा जाँचक पुर्जा बना कए दैत, अर्दलीकेँ अबाज देलन्हि, अर्दलीकेँ लग एला बाद, “माँ जीक संगे जाउ आ सबटा टेस्ट एखने अपने संगे पूरा करा कए हाथो हाथ नेने आबू।”
“जी” कहैत अर्दली डॉक्टरसँ पुर्जा सभ लेला बाद माएसँ, “चलू।”
मुरारीजी आ हुनकर माए अर्दलीक पाँछा पाँछा स्वचालित मसीन जकाँ बिदा भए गेला। जतए जतए अर्दली लए गेलनि ततए ततए जाइत रहला करीब दू घंटा बाद सबटा टेस्ट जेना इसीजी, अल्ट्रासाउन्ड,एक्स-रे, खून पेशाब आदिक जाँच भेला बाद पुनः ओहिठाम डॉक्टर लग आपस एला। डॉक्टर सबटा रिपोर्टकेँ गंभीरतासँ देखला बाद, “हाँ रिपोर्ट सबहक अनुसार प्रोस्टेज बढ़ल छनि आ ओकर जल्दी ओपरेशन नहि भेलासँ किडनी डेमेज भऽ सकैए। एना करू (किछु हुनक पुर्जापर लिखैत) ई ई दबाइ खेला बाद परसु आबि कए माँ जीकेँ भारती करा दियौन। परसु एगारह बजे ओपरेशन हेतनि।”
मुरारीजी हक्का बक्का ई कि भए रहल छैक जाहि ओपरेशनकेँ लेल छह महिना बादक तारीख भेटल छल ओ आइ दू दिन बाद कोना। भारतमे चिकित्सा व्यवस्था एतेक चुस्त दुरुस्त कोना भए गेल ओहो एम्स एहेन सरकारी अस्पतालक। अपन उत्सुकतापर ओ नियन्त्रण नहि राखि पएला आ डॉक्टरसँ पुछिए बैसला, “डॉक्टर साहब माफ करब एकटा गप्प पुछि रहल छी, जाहि ओपरेशन कराबै लेल हम सभ दू बर्खसँ हरान आ निरास छलहुँ, अहूँ लग करीब छह महिनासँ दौर रहल छलहुँ, पिछला महिना अहीँ छह महिना आगूक तारीख देने रहि। आइ दू घंटामे सबटा टेस्टक रिपोर्ट हाथे हाथ आ दू दिन बाद ओपरेशन ई चमत्कार कोना।”
“एहिमे चमत्कार केर कोन गप्प, पहिने हमरा सभकेँ कहाँ बुझल जे अपने प्रोफेसर साहबकेँ सम्बन्धी छियनि।”
“कुन प्रो० साहब।”
“अरे अपन प्रो० साहब जिनक ई यूनिट अछि, प्रो० एस० चौधरी।“
“प्रो० एस० चौधरी आ हमर सम्बन्धी।” मुदा एहि गप्पकेँ मुरारीजी अपन मोनेमे रखने रहला मुँहसँ बाहर नहि निकालला। आगू डॉक्टरसँ, “अपनेसँ कनी निवेदन छल।”
“की कहू ने।”
“कनिक प्रो० साहबसँ भेट भऽ जाइते।”
“किएक नहि, हमरा सबहक दिससँ अपनेक सेवामे कोनो कमी तँ नहि रहल।”
“नै नै, ई कि कहै छी, बस कनी हुनकासँ भेट करक लौलसा छल।”
डॉक्टर साहब अर्दलीकेँ कहैत, “हिनका भीतर प्रोफेसर साहबकेँ केबिनमे नेने जइयौन्ह।”
मुरारीजी आ माए अर्दली संगे बिदा भेला, पाँच मिनट पएरे चलला बाद एकटा लग्जरी एसी केविन, बाहर बोर्डपर लिखल, यूनिट प्रो० डॉ एस चौधरी। अर्दली केबार खोललक तिनु भीतर गेला। भीतर प्रो० एस चौधरी केबारक दिस पीठ कए कऽ एकटा नम्हर लग्जरी कुर्सीपर बैसल आ हुनकर सामने बैसल तीनटा डॉक्टर हुनकासँ परामर्श लैत। केबार खुजलासँ हुनको धियान उम्हर गेलनि। घूरि देखला तँ मुरारीजी आ हुनका बुझैमे देरी नहि लगलनि जे हुनक संगे हुनकर माए छथिन चट्टे गोर लागि आशीर्वाद लेलनि। माएकेँ गोर लागैत देख बांकीकेँ तीनु डॉ सीटसँ उठि ठार भए गेल। डॉ एस चौधरी आन डॉक्टरसँ,  “excuse me, we will meet after five minute later   तीनू डॉक्टर कक्षसँ बाहर चलि गेला। मुरारीजी आश्चर्जसँ, “अहाँ आ एहिठाम, एस चौधरी यानी संतोष चौधरी।” संतोष हुनका दिस देखि मंद मंद मुस्काइत।
मुरारीजी संतोषक पएरपर झुकैक चेष्टामे मुदा ओहिसँ पहिने संतोष हुनका उठा अपन करेजासँ लगा लेलनि। मुरारी, “हमरा क्षमा कए देब, अहाँक बारेमे हम कि कि सोचैत छलहुँ, ओहि दिन ट्रेनमे हम नै जानि कि कि कहि देलहुँ, क्षमा कए दिअ।”
संतोष, “की सभ अनाप सनाप बजै छी। ओहि दिनका गप्प सप्पकेँ बिसरि जाउ। आब ई कहू जे माएक इलाजमे कोनो कमी आ बाधा तँ नहि।”
“कमी, आब कोनो कमी नै, परसु ओपरेशन होबैक निश्चित भेले।”
“हाँ, हमर आइ आ काल्हि केर समय पहिने बुक छल, परसु करीब दू घंटाक समय हमरा लग खाली छल ओहिमे हम माँजीक ओपरेशन करबनि।”
“अहाँक ई उपकार हम जीवन भरि नहि बिसरब, हमरा लेल तँ अपने साक्षात भगवान बनि एलहुँ।”
ई की आब अहाँ हमर दोस्त छी आ दोस्तीमे कोनो उपकार कोना आ ओनाहितो ई अस्पताल हमर तँ नहि सरकारक अछि।”
“अहाँ जे कहू सरकारक हिसाबे तँ ओपरेशनक छह महिना बादक समय भेटल छल।”
“हमहूँ सभ की करबै, एतेक भीड़ भार छैक जे नम्बर लगाबए परैए छैक एक दिनमे सात आठटा ओपरेशन होइत छैक एहि हिसाबे एवरेज निकाइल कए ककरो तारीख देल जाइ छैक। सिस्टमे एहन छैक। एकरा सभकेँ छोरु, ई कहू ठहरल कतए छी, कोनो दिक्कत तँ नहि।”
“नहि, कोनो दिक्कत नहि जे दिक्कत छल अपने दूर कए देलहुँ आब माँ भगवतीक हाथमे।”
“ठीक छै तँ परसु फेर भेट हेतै।”
“ठीक मुदा एकटा प्रश्न पूछब अपनेसँ।”
“की ?”
“एतेक पघि डॉक्टर भए कऽ अहाँ ओहि दिन द्वितीय श्रेणीक स्लीपर किलासमे किएक ?”
संतोष हँसैत हँसैत, “हा हा हा, द्वितीय श्रेणीक स्लीपर किलासमे नहि रहितहुँ तँ अपनेसँ कोना भेट होइते। (गप्पकेँ बदलैत) हम अपने जकाँ माएक एतेक भक्त तँ नहि छी जे अपन हाथ कटवा दि मुदा एतेक सिनेह तँ अपन माएसँ करिते छी जे हुनका लेल द्वितीय श्रेणीक स्लीपर किलासमे एक दिन यात्रा कए सकी।”
“से की नहि बुझलहुँ ?”
“बात ई कि हम सभ मुलतः मधुबनी जिलाक छी मुदा २५-२६ बर्ख पहिने हमर बाबूजी पटना शिप्ट कए गेला। एखन हमर परिवार सभ पटनेमे छथि। ओहि दिन भोरे एकाएक पटनामे हमर माएक मोन बड्ड खराप भए लेल रहनि। आब १०-१२ घंटामे नहि कोनो एयरलाइंसक टिकट आ नहि कोनो ट्रेनक प्रथम वा कोनो एसीक टिकट भेटल मुदा गेनाइ जरूरी छल तहन कोनो दलालसँ एकटा द्वितीय श्रेणीक स्लीपर किलासक टिकट भेटल आ ओहि बिधि अपनेसँ भेट होबैक उपरबलाक कोनो प्रयोजन रहल हेतनि। किएक तँ घर पहुचैत पहुचैत माएओ एकदम ठीक छली। दिनभरि रहि अगिला दिन भोरे हवाई जहाजसँ आपस आबि ड्यूटी केलहुँ।” 

*****जगदानन्द झा 'मनु'

शनिवार, 2 अगस्त 2014

मैथिलीमे एकरूपताक अभाब


“कोस-कोसपर बदले पानी, तीन कोसपर बदले वाणी।” ई कथ्य किनकर अछि, हम नहि जानि मुदा अछि जग जाहिर। कोनो एहन सुधी मनुख नहि जे एहि पाँति सँ अनभिक होथि। आ ई कथ्य सोलह आना सत्य अछि। एक गामसँ दोसर गामक इनार पोखरिक पानिमे अन्तर आबि जाइ छैक। ओना आब इनारक जमाना तँ रहल नहि। गामक घरे-घर चापा कऽल चलि गेलै आ शहरक घरे-घर टंकी। टंकीक पानिमे तँ कनिक समानता देखलो जा सकैत अछि मुदा एक आँगनक चापा कऽलक पानिक   स्वाद दोसर आँगनक चापा कऽलसँ भिन्न होएत। परञ्च हम एहिठाम पानिक संदर्भमे गप्प नहि कहि कऽ भाषाक पक्षक मादे कहै चाहैत छी। पानि जकाँ भाषाक मिजाद सेहो सगरो तीन चारि कोसपर बदलल देखाइत छैक। ई असमानता मिथिले-मैथिलीमे नहि भऽ कँ कमबेसी सम्पूर्ण भारतीय वा अभारतीय भाषामे देखार भऽ चुकल अछि आ ओ गुण कोनो भाषाक विकास आ ओकर उन्नतिक पक्षक धियान राखि ठीके अछि। पानिक मादे जेना कोनो नदी हेतु ओहिमे बहाब भेनाइ स्वभाविक छैक नहि तँ ओ नदीसँ डबरा भऽ जेतैक। तेनाहिते कोनो भाषाक चहुमुखी विकास लेल ओहिमे निरन्तर बहाब, अर्थात नव-नव शव्दक वृद्धि, आन-आन भाषाक सटीक आ प्रचलित शव्दकेँ स्वीकार केनाइ आवश्यक छैक। आ दुनियाँक ओ कोनो भाषा जे अपना आपके एकटा बहुत पैघ रुपे स्थापित केलक, ओकर विकासक इहे अबधारना वा गुणक कारने संभब भेल अछि। हमरा इआद अछि जखन अंग्रेगीक प्रथम शव्दकोष बनल रहैक तँ ओहिमे मात्र एक हजार शव्दकेँ जगह भेटल रहैक आ आइ..... ?

मुदा मैथिलीक संगे, ई गुण किछु बेसीए अछि। किएक तँ मैथिल किछु बेसीए बुद्धिजीवी, शिक्षित आ चलएमान छथि। जतए-जतए गेला अपना भाषाकेँ अपना संगे नेने गेला आ ओतुका भाषाक शव्दकेँ अपना संगे जोड़ने गेला। ओनाहितो अपन मिथिलांचलक प्रतेक दू तीन कोसक बादक भाषामे भिन्नता अछि। पछिमाहा मैथिली पुरबाहा मैथिली, दछिनाहा मैथिली उत्तर भरक मैथिली, कमला कातक मैथिली, कोसी कातक मैथिली। एक्के गाममे बड्डकाक मैथिली, छोटकाक मैथिली। नीक गामक मैथिली तँ बेजए गामक मैथिली। शिक्षित मैथिली तँ अशिक्षित मैथिली। आमिरक मैथिली तँ गरीबक मैथिली। एक्के बेर एतेक बेसी असमानता भऽ गेल अछि जे कतेक ठाम तँ मैथिली नहि कहि कऽ दोसर नामसँ संबोधन भँ रहल अछि।

अपन जाहि गुणक कारण दुनियाँक कोनो दोसर भाषा विकासक रस्तापर चलि रहल अछि, ओतए हमर सबहक मैथिली एहि क्रममे पछुआ रहल अछि। एकर की कारण ? तँ उत्तरमे हमरा मैथिलीक एकटा लोकोक्ति इआद आबि रहल अछि। “जे बड्ड होशियार से तीन ठाम गूँह मखे।” एहि लोकोक्तिकेँ कनी फरिछादी; एकटा पढ़ल लिखल विद्वान् गूँह मँखि गेला, आब ओ एहि गप्पक खोजमे लागि गेला जे, जे मखलौं से गूँहे अछि वा किछु आरो। एहि क्रममे ओ पएरक गूँहकेँ अपन हाथक आंगुरसँ छुला बाद नाकसँ सुंघला। लगलनि ने तीन ठाम, पएरमे, हाथक आंगुरमे, अन्तोगत्बा नाकमे। ओतए एकटा दोसर व्यक्ति बेसी खोज बिन नहि पैर कऽ मखला बाद पानिसँ धो लेलक। “अति सर्वत्र वर्जिते,” इहे रोग मैथिली भाषाक विकासमे लागि गेल अछि। जाहि गुणक कारणे हम आगू बढ़ि सकैत छलहुँ, अपन ओहि गुणकेँ कारण ठमैक गेल छी।

एहि गुण, अतिसय गुण वा कही तँ अबगुनकेँ हम समान्य लोककेँ लेल जेनाकेँ तेना छोरिदी, विकास क्रममे समयक संगमे मानिली जे ओ अपने ठीक भए जेतैक। मुदा जे अपनाकेँ बुद्धिजीवी कहैत छथि, शिक्षित आ मैथिली विकासक ठेकेदार अपनाकेँ मानैत छथि तिनका सभकेँ तँ कदापि नहि छोरल जए आ हुनके सबहक एकरूपताक अभाबे मैथिलीक गति अबरुद्ध भेल अछि। एकटा समान्य लोक ककरा देखत, पढ़त ? एकगोट बुद्धिजीवीकेँ, साहित्यकारकेँ, पत्र-पत्रिकाकेँ, ऑडियो-विडिओ मिडियाकेँ मुदा एखुनका समयमे मैथिली भाषाक एकरूपतामे कतौ समानता नहि अछि। एहिठाम हम समान्य लोकक गप्प नै कहि रहल छी, पढ़ल-लिखल, मैथिलीमे ऑनर्स, एमए०, पिएचडी करै बलाक गप्प कए रहल छी। जिनक सबहक कतेको मैथिली पोथी छपा कऽ समान्य लोकक हाथमे आबि गेल अछि, मैथिलीक पत्र-पत्रिकाक सम्पादक आ सम्पादक मण्डलीक गप्प कए रहल छी। कतेको मैथिलीक पुस्तक छापि चुकल प्रकाशकक गप्प कए रहल छी। ऑडियो-विडिओ बेच कऽ अपन कमाइ करै बला चैनल आ म्यूजिक विडिओज कम्पनीक गप्प कए रहल छी।

सदति भाषाक एकरुपताक अभाब अछि। कनिक काल लेल किनको अज्ञान मानि कए क्षमा कएल जा सकैत अछि मुदा ओहि खन कि कएल जे जखन कियो गोटा अपनाकेँ मुख्य सम्पादक, सम्पादक, मैथिलीक ऑनर्स, एमए पिएचडीक चश्मा पहिरने, ओहि घोड़ा जकाँ लगैत अछि, जेकरा आँखिपर हरियर पट्टी बान्हल छैक आ ओकरा सगरो दुनियाँमे हरियरे-हरियर नजरि अबैत छैक। ई बिडम्बना मैथिलीए संगे किएक ? जीवन भरि अपन घर-परिवारमे मैथिली नहि बजै बला मैथिलीक ठीकेदार बनि जाइत छैक किएक ? एहिठाम हम विदेह ग्रुपक प्रसंशा करैत छी जे ओ अन्तर्जाल आ प्रिन्ट दुनू रूपे मैथिली भाषाक समृधि आ एकरूपता लेल भागीरथी प्रयासमे लागल छथि।

कतेको प्रकाशकक पोथी, कतेको लेखक आ साहित्यकारक कृति, कतेको पत्र-पत्रिका, फलाँ फलाँ मैथिली एकादमीक पोथी आ पत्रिका हमरा लग अछि जाहिमे विभक्ति केर प्रयोग हिन्दीक तर्जपर कएल गेल अछि। कतेक मैथिलीक महान-महान विभूतिसँ हम व्यक्तिगत रुपे संपर्क कए हुनका सभसँ निवेदन केलहुँ जे, मैथिलीमे विभक्तिकेँ सटा कए लिखबा चाही मुदा नहि, ओहे आँखिपर पट्टी बान्हल घोड़ा बला हिसाब। एकटा मुख्य-सम्पादक, सम्पादक, ऑनर्स, एमए, पिएचडी, केनहार अपनाकेँ मैथिलीक ठीकेदार बुझनाहर, दोसर लोकक गप्प कोना मानि लेता। लागल छथि सभकेँ सभ मैथिलीकेँ हिंदी टच देबैमे। जीवन होए वा साहित्य ई गप्प मानै बला छैक जे लोक गल्तीए कए कऽ आगू बढ़ैत छैक। मुदा ओइ लोक आ संस्थाक कि जे गल्तीओ करत, गल्तीकेँ मानबो नहि करत, आ बाजु तँ लड़बो करत, ई तँ ओहे गप्प भेल जकर लाठी तकरे भैंस मुदा एहिठाम गप्प भैंसक नहि छैक, एहिठाम गप्प एकटा प्राचीन, समृद्ध आ श्रेष्ठ भाषाक भविष्य आ एकरूपताक छैक।

दुनियाँक सभ समृद्ध भाषामे एना देखल गेलैए जे आम बोलचाल आ साहित्य, शिक्षा वा सार्वजनिक भाषामे भेद पाएल जाइत छैक। आम बोलचाल आ प्रचलनमे बहुत सगरो छूट छैक वा बन्हँन केर आभाव छैक मुदा साहित्य, शिक्षा आ सार्वजानिक मंच हेतु ओहि भाषाक एकटा मानक रूपक प्रयोग कएल जाइत छैक। एहि तरहक अभाब मैथिलीक संगे किएक ? मैथिली साहित्यकार, सम्पादक, प्रकाशक मैथिलीक मानक रूपक प्रयोग किएक नहि करैत छथि। कतेको जन्मान्हर(ज्ञान रुपे) तँ सिखैक डरे एक्के बेर कहता, “चलू चलू अहाँ फलाँ-फलाँ ग्रुपसँ जुड़ल छी ई ओकर सबहक चर्च छै।“ यौ महराज ई चर्च अहाँ लगकेँ अनलक ई नहि देखि, ई देखू जे की अनलक। कनिक देखैक अपन नजरि बदलि लिअ तँ अहूँक विकास आ संगे संग भाषाक विकासक सेहो सम्भावना मुदा नहि हमर एकटा आँखि फूटेए तँ फूटेए तोहर दुनू फोरबौ। आ एहि फोरा फोरीमे ई किनको चिंता नहि जे ओहि माए बाबूक कि हाल जिनक करेजाक टुकरा अपन दुनू छी।

मैथिलीमे एकरूपताक अभाब, इस्थीति, कारण आ निदानपर चर्चा करी तँ एकटा बेस मोटगर किताब बनि जाएत मुदा मैथिलीक अबरुद्ध विकास हेतु हमरा सभकेँ अपन अपन आँखि नै मुनि एहि चर्चाकेँ आगू बढ़ाबए परत। आ अति शीर्घ मैथिलीक वर्तमान पत्र-पत्रिकाक सम्पादक, प्रकाशक, साहित्यकार, लेखक आर कोनो सार्वजानिक मंचकेँ देखनिहार लोकनि सभकेँ मानक मैथिलीकेँ स्वीकार कए ओकरा आगू आनए परत नहि तँ ओ दिन दूर नहि जहिया हमर सबहक धिया पूरा एकरा इतिहासक पोथीमे पढ़त।
© जगदानन्द झा ‘मनु’

मंगलवार, 29 जुलाई 2014

मैयाक गीत


ई जे साँझ परलै मैया
की हमरे जीवनमे
मुनल आँखि तकबै कहिया
हमरो जीवनमे।।

सगर दुनियाँकेँ चिलका
माएक आँचर तर
हम अभागल कोना
भटकै छी दर-दर।।

घुरि, बुझि आबो आबू
'मनु' अबुद्धि नेना
अपन सिनेहसँ
किएक बिसरलहुँ ऐना।।

© जगदानन्द झा 'मनु'

सोमवार, 16 जून 2014

गजल

एहि ठाम साट हेराए गेलै रामा
फेर आइ बलम बौराए गेलै रामा

चढ़ल साइठक जबानी केहन बुढ़बापर
चुलहाक नार चोराए गेलै  रामा

गाममे बसल घरे घर छै कंठी धारी
साँझ परल माँछ झोराए गेलै रामा

देख ढंग पुतक करनी आजुक आँगनमे
बाप केर आँखि नोराए गेलै रामा

‘मनु’ समाजमे सगर मोदी जीकेँ अबिते
माल संग चोर पकराए गेलै रामा 

(मात्रा क्रम : २१२१२१-२२२२-२२२)
©जगदानन्द झा ‘मनु’

गुरुवार, 12 जून 2014

लघु कथा : ककर दोख


जीबछ बाबूक पन्द्रह वर्खक बेटी ललिया, अति सुन्नर रूप जेना कि भगवान निचैनसँ गढ़ने होएत। पन्द्रहे वर्खक बएसमे साढ़े पाँच फूट नम्हर छरहरा शरीर नम्हर-नम्हर आँखि, कमलक पंखुरी सन ठोर, गोलका मुँहमे छोटगर पातर नाक, डाँर धरि नम्हर केश, सम्पूर्ण देह एक मेलमे। एक-एकटा अंग सुन्दरताक उदाहरण नेने। ताहिपर जखन ललिया अपन मनपसन्द केर जड़ीदार उज्जरा शलवार सूट आ ओहिपर उज्जरा ओढ़नी लए लिए तँ साक्षात सरस्वती जकाँ ओकर रूप निखरि जाइ।
ललियाक रूप सौन्दर्य आ सादगी देखि जीबछ बाबू लग बर्ख भरि पहिनेसँ वरक माए बाबू सबहक निवेदन आबए लागल जे अपन कन्याँ हमरा दऽ दिअ तँ हमरा दऽ दिअ। जीबछ बाबू अपन बेटीक भविष्य आ ओकर शिक्षा-दीक्षाकेँ नहि देखि, कन्याँदानकेँ अपन जिम्मेदारी वा बेटीकेँ बोझ बुझि एकटा नीक ललिये सन सुन्नर लड़का, माए बाबूक एक्केटा बेटा, ओकरो बएस कम्मे, ललियासँ चारि बर्ख बेसी, सभ किछु देखला बाद ओकर ब्याह ठीक कए लेला।
कनियाँ-पुतरा खेलए बला बएसमे आइ ललियाक ब्याह भए रहल छल। घर-आँगन, लोक-वेद सभकियो सजल धजल। दलानपर वर-वराती सभ आएल। मुदा अज्ञानी ललिया खुश, कुदैत खेलाइत। ओहि अज्ञानीकेँ कि बुझल जे ब्याह की है छैक। ब्याहक ललका साड़ीमे तँ ओकर रूप सौन्दर्य आओर निखैर कए कोनो देवी जकाँ लगए लागल।  
ब्याह भेलै। साते दिनमे दुरागमन आ ओकर बाद सासुर। सासुरमे सभ किछु नव-नव। नव-नव लोक, नव-नव घर आँगन, नव-नव समाज। समाजक मर्यादा आ नियम रूपी बन्हनसँ बन्हा कए ओ एकटा आँगनामे कैद भए क रहि गेल। अपन घरमे ओ मात्र खेलाएत छल मुदा एहिठाम सासु ससुरक सेवा, घरक काज। ई सब करैत-करैत ललियाक पैंख जेना उड़नाइ बिसैर गेलै। एहि भावनाक रेगिस्तानक गर्मीमे कएखनो कए ओकरा शीतलताक अनुभूति होए तँ अपन पतिक संगे। दुनू बाल-किसोर मोन एक दोसरकेँ बुझै-समझैक प्रयासमे लागल।
समाज आ नीतिकेँ एतबोसँ संतोख नहि। अपन समाजक गरीबी रूपी दानवसँ बचैक हेतु ललियाक पतिपर आओर एकटा बोझ। माए-बाप अपन स’ख स’खमे बेटाक ब्याह कए क एकटा सुन्नर पुतौह तँ आनि लेलनि मुदा आब अपन बेटापर कतौ बाहर जा कए कमाइकेँ लेल दबाब देबए लगलखीन। ओहो एहि दबाबकेँ बेसी दिन नहि सहि सकला आ ब्याहक छ’ महिना पछाति, सूरत जतए कि हुनक गामक बड़ लोक काज करैत छल, कोनो ग्रामीण संगे चलि गेला।
पन्द्रह दिनक मेहनतिकेँ बाद हुनका एकटा ट्रांसपोर्ट कम्पनीमे मुनीमक नौकरी भेट गेलनि। दरमाहा छह हजार रुपैया महिना। ई समाचार सुनि हुनक माए-बाबू बड़ खुस जे बेटा ६ हजार रुपैया महिना कमेए लागल। एक महिना पछाति ओ दू हजार रुपैया अपन खर्चा हेतु राखि बांकीकेँ चारि हजार रुपैया गाम पठेलनि। रुपैया पाबि हुनक माए-बाबू गद-गद भए गेला। मानु हुनक रोपल गाछ फरए लागल। मुदा ललिया एहि सभसँ अनजान। ओकरा ई बुझएमे नहि एलैजे एहि रेगिस्तानमे ओकरा लेल एकटा पानिक सेतु ओहो कतए आ किएक चलि गेलै। भरि दिन-राति उदास मोनकेँ मारि कोनो ना अपनाकेँ घरक काज आ सासु सासुरक सेवामे लगेने।
नोकरी पकरलाक चारि मास बाद, एक दिन ललियाक ससुर लग सूरतसँ फोन आएल जे हुनक बेटा अर्थात ललियाक पतिकेँ अपने कम्पनीक कोनो ट्रकसँ एक्सीडेंट भए गेलनि आ आब ओ एहि दुनियाँमे नहि रहला। ई सुनैत मातर जेना हुनका उपर बज्र खसि परलैन। आँखिक आगू अन्हार भए गेलनि। फोन एक कात गुरकल तँ अपने दोसर कात गुरैक गेला। जे सुनलक दौरल। आँगनमे भीरक करमान लागि गेलै। सभ कियो कानैत-खिजैत, दुखक सागरमे डूबल। मुदा सभकियो सभटा दोख हारि थाकि कए ललियेपर देबै लागल। जेहन मुँह तेहन-तेहन गप्प होबए लागल।
“अलक्षी”
“खाए गेलै”
“अभागल”
“दसे महिनामे सोदि गेलै”
“देखैमे........ भीतरसँ राक्षसनी”
“घर बलाकेँ तँ खाऐ गेलै आब एहि बुढ़बा-बुढ़ियाक की हेतै”
एहने एहने अनसोहाँत गप्प सभ ललियाक कानमे आबैत। ततबामे कोनो स्त्री आबि ओकर माँगक सेनुर मेटा देलक तँ दोसर कोनो स्त्री ओकर दुनू हाथक चूड़ी फोरि देलक। मुदा असहाय ललिया ई सभ देख ठक-बक, ओकरा किछु बुझहेमे नहि आबि रहल छलै जे की भेलै आ ई सभ की भए रहल छैक। सबहक गप्प मानी तँ ओकर घर बाला मरि गलै। ई मरनाइ कि होइ छैक। मरि गेलै तँ एहिमे ओकर की दोख। आ ओकर सेनूर किएक मेटेएल गेल, ओकर चूड़ी किएक फोड़ल गेल। खेएर समाजक व्यवस्था, ओ अज्ञानी की बुझत ओकर माथपर केहन  पहाड़ खसि परलै। मुदा एहिमे ओकर की दोख ? 
© जगदानन्द झा 'मनु' 

बुधवार, 28 मई 2014

अंतःद्धंद

(एकटा पंखा मिस्त्रीक व्यथा) 

एक हथौड़ीक सवाल छल
आओर अक्ल हमर खराप छल
हम सोचैत छलहुँ आब की होएत
ठीक नहि हमर हाल छल।
दिमागक स्क्रू हमर
जेना फ्री भए गेल हुए
हाथक हमर हथौड़ी
जेना फूल भए गेल हुए।
हम चाहैत छलहुँ खसेए पूर्व
मुदा पश्चिममे जा कए खसैत छल
हम आब करू की
हमर बुद्धिमे नहि किछु अबैत छल।
बर्खक साधना हमर
किएक निष्फल भए रहल छल
मोन चाहैत छल किछु आओर
परन्च किछु आओर भए रहल छल।
सामने ठार ग्राहक हमर
आओर दिमाग चाइट रहल छल
पहिलेसँ हम खिसिएल
हमरा आओर तामस भए रहल छल।
नुकाबैत हम अपन कमजोरी
मोन हमर नबका स्वांग रचि रहल छल
दि की ओकरा बड़का बहाना
इहे बिचार मोन सोचि रहल छल।
आखीर सीमा पार कए गेलै
अपन सम्पति केर प्रेम ओकर
बिच्चेमे ऑन भए गेलै
मुँह रिकार्डिंग सुन्नर ओकर।
हमहूँ खाड़ खा चुकल छलहुँ
बहुत पहिने हारि मानि लेने छलहुँ
दए देलिएनि एकटा जबरदस्त गोली
‘भए गेल ई बेकार’ कहि देने छलहुँ।
सुनैत देरी शव्द बेकार
आगिमे घी डलि गेलै
तामसक ओकर सीमा
फूटि कए बाहर आबि गेलै।
हमहूँ एकरे इंतजारमे
कखनसँ बाट जोहि रहल छलहुँ
फेक सड़कपर देलौं चट्टे
जाहिमे एखन धरि लागल छलहुँ।
आब तँ ग्राहकक होश उड़ि गेलै
हाथक सुगा ओकर फूड़ भए गेलै
नचैत फतिंगा सन ओ
हमरा गीत सुना रहल छल।
सुनैत ओकर अमृत वचन
हमर मोनकेँ डरा रहल छल
मुदा अपन टोलक कुकुर जकाँ
हमरो तामस शेर बनल छल।
मजाल ओकरो की किछु आगू करेए
बस, धमकाबैत हमरा जा रहल छल
हमरो मोन पश्चयातापक आगिमे
किछु-किछु तपि रहल छल।
कोइस रहल छलहुँ अपन पेसाकेँ
छि, इहो कोनो काज अछि
एरे-गेरे आबि कए एहिठाम
नीक-बेजए सुना जाइत अछि।
सभकियोक बुझैत अछि बैमान
हम इमानदारीक दम भरै छी
हमरासँ बढ़ियाँ कोंटाक भिखमंगा
जेकरा हम हँसि कए पाइ दै छी।
फेर दिमागक कोणामे बैसल
आजुक मनुक्खसँ बजै छी
बिनु किछु केने बैमान कहलाइ
तँ किछु कए क किएक नहि पाबै छी।
एहि तर्कमे दम बहुत छल  
जीवैक  आब ढंग इहे अछि  
अपनेलहुँ आब नवका रस्ता
सभ इमानदार बहुत कहैत अछि।
©जगदानन्द झा ‘मनु’