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बुधवार, 28 मई 2014

अंतःद्धंद

(एकटा पंखा मिस्त्रीक व्यथा) 

एक हथौड़ीक सवाल छल
आओर अक्ल हमर खराप छल
हम सोचैत छलहुँ आब की होएत
ठीक नहि हमर हाल छल।
दिमागक स्क्रू हमर
जेना फ्री भए गेल हुए
हाथक हमर हथौड़ी
जेना फूल भए गेल हुए।
हम चाहैत छलहुँ खसेए पूर्व
मुदा पश्चिममे जा कए खसैत छल
हम आब करू की
हमर बुद्धिमे नहि किछु अबैत छल।
बर्खक साधना हमर
किएक निष्फल भए रहल छल
मोन चाहैत छल किछु आओर
परन्च किछु आओर भए रहल छल।
सामने ठार ग्राहक हमर
आओर दिमाग चाइट रहल छल
पहिलेसँ हम खिसिएल
हमरा आओर तामस भए रहल छल।
नुकाबैत हम अपन कमजोरी
मोन हमर नबका स्वांग रचि रहल छल
दि की ओकरा बड़का बहाना
इहे बिचार मोन सोचि रहल छल।
आखीर सीमा पार कए गेलै
अपन सम्पति केर प्रेम ओकर
बिच्चेमे ऑन भए गेलै
मुँह रिकार्डिंग सुन्नर ओकर।
हमहूँ खाड़ खा चुकल छलहुँ
बहुत पहिने हारि मानि लेने छलहुँ
दए देलिएनि एकटा जबरदस्त गोली
‘भए गेल ई बेकार’ कहि देने छलहुँ।
सुनैत देरी शव्द बेकार
आगिमे घी डलि गेलै
तामसक ओकर सीमा
फूटि कए बाहर आबि गेलै।
हमहूँ एकरे इंतजारमे
कखनसँ बाट जोहि रहल छलहुँ
फेक सड़कपर देलौं चट्टे
जाहिमे एखन धरि लागल छलहुँ।
आब तँ ग्राहकक होश उड़ि गेलै
हाथक सुगा ओकर फूड़ भए गेलै
नचैत फतिंगा सन ओ
हमरा गीत सुना रहल छल।
सुनैत ओकर अमृत वचन
हमर मोनकेँ डरा रहल छल
मुदा अपन टोलक कुकुर जकाँ
हमरो तामस शेर बनल छल।
मजाल ओकरो की किछु आगू करेए
बस, धमकाबैत हमरा जा रहल छल
हमरो मोन पश्चयातापक आगिमे
किछु-किछु तपि रहल छल।
कोइस रहल छलहुँ अपन पेसाकेँ
छि, इहो कोनो काज अछि
एरे-गेरे आबि कए एहिठाम
नीक-बेजए सुना जाइत अछि।
सभकियोक बुझैत अछि बैमान
हम इमानदारीक दम भरै छी
हमरासँ बढ़ियाँ कोंटाक भिखमंगा
जेकरा हम हँसि कए पाइ दै छी।
फेर दिमागक कोणामे बैसल
आजुक मनुक्खसँ बजै छी
बिनु किछु केने बैमान कहलाइ
तँ किछु कए क किएक नहि पाबै छी।
एहि तर्कमे दम बहुत छल  
जीवैक  आब ढंग इहे अछि  
अपनेलहुँ आब नवका रस्ता
सभ इमानदार बहुत कहैत अछि।
©जगदानन्द झा ‘मनु’  

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