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मंगलवार, 29 जुलाई 2014

मैयाक गीत


ई जे साँझ परलै मैया
की हमरे जीवनमे
मुनल आँखि तकबै कहिया
हमरो जीवनमे।।

सगर दुनियाँकेँ चिलका
माएक आँचर तर
हम अभागल कोना
भटकै छी दर-दर।।

घुरि, बुझि आबो आबू
'मनु' अबुद्धि नेना
अपन सिनेहसँ
किएक बिसरलहुँ ऐना।।

© जगदानन्द झा 'मनु'

सोमवार, 16 जून 2014

गजल

एहि ठाम साट हेराए गेलै रामा
फेर आइ बलम बौराए गेलै रामा

चढ़ल साइठक जबानी केहन बुढ़बापर
चुलहाक नार चोराए गेलै  रामा

गाममे बसल घरे घर छै कंठी धारी
साँझ परल माँछ झोराए गेलै रामा

देख ढंग पुतक करनी आजुक आँगनमे
बाप केर आँखि नोराए गेलै रामा

‘मनु’ समाजमे सगर मोदी जीकेँ अबिते
माल संग चोर पकराए गेलै रामा 

(मात्रा क्रम : २१२१२१-२२२२-२२२)
©जगदानन्द झा ‘मनु’

गुरुवार, 12 जून 2014

लघु कथा : ककर दोख


जीबछ बाबूक पन्द्रह वर्खक बेटी ललिया, अति सुन्नर रूप जेना कि भगवान निचैनसँ गढ़ने होएत। पन्द्रहे वर्खक बएसमे साढ़े पाँच फूट नम्हर छरहरा शरीर नम्हर-नम्हर आँखि, कमलक पंखुरी सन ठोर, गोलका मुँहमे छोटगर पातर नाक, डाँर धरि नम्हर केश, सम्पूर्ण देह एक मेलमे। एक-एकटा अंग सुन्दरताक उदाहरण नेने। ताहिपर जखन ललिया अपन मनपसन्द केर जड़ीदार उज्जरा शलवार सूट आ ओहिपर उज्जरा ओढ़नी लए लिए तँ साक्षात सरस्वती जकाँ ओकर रूप निखरि जाइ।
ललियाक रूप सौन्दर्य आ सादगी देखि जीबछ बाबू लग बर्ख भरि पहिनेसँ वरक माए बाबू सबहक निवेदन आबए लागल जे अपन कन्याँ हमरा दऽ दिअ तँ हमरा दऽ दिअ। जीबछ बाबू अपन बेटीक भविष्य आ ओकर शिक्षा-दीक्षाकेँ नहि देखि, कन्याँदानकेँ अपन जिम्मेदारी वा बेटीकेँ बोझ बुझि एकटा नीक ललिये सन सुन्नर लड़का, माए बाबूक एक्केटा बेटा, ओकरो बएस कम्मे, ललियासँ चारि बर्ख बेसी, सभ किछु देखला बाद ओकर ब्याह ठीक कए लेला।
कनियाँ-पुतरा खेलए बला बएसमे आइ ललियाक ब्याह भए रहल छल। घर-आँगन, लोक-वेद सभकियो सजल धजल। दलानपर वर-वराती सभ आएल। मुदा अज्ञानी ललिया खुश, कुदैत खेलाइत। ओहि अज्ञानीकेँ कि बुझल जे ब्याह की है छैक। ब्याहक ललका साड़ीमे तँ ओकर रूप सौन्दर्य आओर निखैर कए कोनो देवी जकाँ लगए लागल।  
ब्याह भेलै। साते दिनमे दुरागमन आ ओकर बाद सासुर। सासुरमे सभ किछु नव-नव। नव-नव लोक, नव-नव घर आँगन, नव-नव समाज। समाजक मर्यादा आ नियम रूपी बन्हनसँ बन्हा कए ओ एकटा आँगनामे कैद भए क रहि गेल। अपन घरमे ओ मात्र खेलाएत छल मुदा एहिठाम सासु ससुरक सेवा, घरक काज। ई सब करैत-करैत ललियाक पैंख जेना उड़नाइ बिसैर गेलै। एहि भावनाक रेगिस्तानक गर्मीमे कएखनो कए ओकरा शीतलताक अनुभूति होए तँ अपन पतिक संगे। दुनू बाल-किसोर मोन एक दोसरकेँ बुझै-समझैक प्रयासमे लागल।
समाज आ नीतिकेँ एतबोसँ संतोख नहि। अपन समाजक गरीबी रूपी दानवसँ बचैक हेतु ललियाक पतिपर आओर एकटा बोझ। माए-बाप अपन स’ख स’खमे बेटाक ब्याह कए क एकटा सुन्नर पुतौह तँ आनि लेलनि मुदा आब अपन बेटापर कतौ बाहर जा कए कमाइकेँ लेल दबाब देबए लगलखीन। ओहो एहि दबाबकेँ बेसी दिन नहि सहि सकला आ ब्याहक छ’ महिना पछाति, सूरत जतए कि हुनक गामक बड़ लोक काज करैत छल, कोनो ग्रामीण संगे चलि गेला।
पन्द्रह दिनक मेहनतिकेँ बाद हुनका एकटा ट्रांसपोर्ट कम्पनीमे मुनीमक नौकरी भेट गेलनि। दरमाहा छह हजार रुपैया महिना। ई समाचार सुनि हुनक माए-बाबू बड़ खुस जे बेटा ६ हजार रुपैया महिना कमेए लागल। एक महिना पछाति ओ दू हजार रुपैया अपन खर्चा हेतु राखि बांकीकेँ चारि हजार रुपैया गाम पठेलनि। रुपैया पाबि हुनक माए-बाबू गद-गद भए गेला। मानु हुनक रोपल गाछ फरए लागल। मुदा ललिया एहि सभसँ अनजान। ओकरा ई बुझएमे नहि एलैजे एहि रेगिस्तानमे ओकरा लेल एकटा पानिक सेतु ओहो कतए आ किएक चलि गेलै। भरि दिन-राति उदास मोनकेँ मारि कोनो ना अपनाकेँ घरक काज आ सासु सासुरक सेवामे लगेने।
नोकरी पकरलाक चारि मास बाद, एक दिन ललियाक ससुर लग सूरतसँ फोन आएल जे हुनक बेटा अर्थात ललियाक पतिकेँ अपने कम्पनीक कोनो ट्रकसँ एक्सीडेंट भए गेलनि आ आब ओ एहि दुनियाँमे नहि रहला। ई सुनैत मातर जेना हुनका उपर बज्र खसि परलैन। आँखिक आगू अन्हार भए गेलनि। फोन एक कात गुरकल तँ अपने दोसर कात गुरैक गेला। जे सुनलक दौरल। आँगनमे भीरक करमान लागि गेलै। सभ कियो कानैत-खिजैत, दुखक सागरमे डूबल। मुदा सभकियो सभटा दोख हारि थाकि कए ललियेपर देबै लागल। जेहन मुँह तेहन-तेहन गप्प होबए लागल।
“अलक्षी”
“खाए गेलै”
“अभागल”
“दसे महिनामे सोदि गेलै”
“देखैमे........ भीतरसँ राक्षसनी”
“घर बलाकेँ तँ खाऐ गेलै आब एहि बुढ़बा-बुढ़ियाक की हेतै”
एहने एहने अनसोहाँत गप्प सभ ललियाक कानमे आबैत। ततबामे कोनो स्त्री आबि ओकर माँगक सेनुर मेटा देलक तँ दोसर कोनो स्त्री ओकर दुनू हाथक चूड़ी फोरि देलक। मुदा असहाय ललिया ई सभ देख ठक-बक, ओकरा किछु बुझहेमे नहि आबि रहल छलै जे की भेलै आ ई सभ की भए रहल छैक। सबहक गप्प मानी तँ ओकर घर बाला मरि गलै। ई मरनाइ कि होइ छैक। मरि गेलै तँ एहिमे ओकर की दोख। आ ओकर सेनूर किएक मेटेएल गेल, ओकर चूड़ी किएक फोड़ल गेल। खेएर समाजक व्यवस्था, ओ अज्ञानी की बुझत ओकर माथपर केहन  पहाड़ खसि परलै। मुदा एहिमे ओकर की दोख ? 
© जगदानन्द झा 'मनु' 

बुधवार, 28 मई 2014

अंतःद्धंद

(एकटा पंखा मिस्त्रीक व्यथा) 

एक हथौड़ीक सवाल छल
आओर अक्ल हमर खराप छल
हम सोचैत छलहुँ आब की होएत
ठीक नहि हमर हाल छल।
दिमागक स्क्रू हमर
जेना फ्री भए गेल हुए
हाथक हमर हथौड़ी
जेना फूल भए गेल हुए।
हम चाहैत छलहुँ खसेए पूर्व
मुदा पश्चिममे जा कए खसैत छल
हम आब करू की
हमर बुद्धिमे नहि किछु अबैत छल।
बर्खक साधना हमर
किएक निष्फल भए रहल छल
मोन चाहैत छल किछु आओर
परन्च किछु आओर भए रहल छल।
सामने ठार ग्राहक हमर
आओर दिमाग चाइट रहल छल
पहिलेसँ हम खिसिएल
हमरा आओर तामस भए रहल छल।
नुकाबैत हम अपन कमजोरी
मोन हमर नबका स्वांग रचि रहल छल
दि की ओकरा बड़का बहाना
इहे बिचार मोन सोचि रहल छल।
आखीर सीमा पार कए गेलै
अपन सम्पति केर प्रेम ओकर
बिच्चेमे ऑन भए गेलै
मुँह रिकार्डिंग सुन्नर ओकर।
हमहूँ खाड़ खा चुकल छलहुँ
बहुत पहिने हारि मानि लेने छलहुँ
दए देलिएनि एकटा जबरदस्त गोली
‘भए गेल ई बेकार’ कहि देने छलहुँ।
सुनैत देरी शव्द बेकार
आगिमे घी डलि गेलै
तामसक ओकर सीमा
फूटि कए बाहर आबि गेलै।
हमहूँ एकरे इंतजारमे
कखनसँ बाट जोहि रहल छलहुँ
फेक सड़कपर देलौं चट्टे
जाहिमे एखन धरि लागल छलहुँ।
आब तँ ग्राहकक होश उड़ि गेलै
हाथक सुगा ओकर फूड़ भए गेलै
नचैत फतिंगा सन ओ
हमरा गीत सुना रहल छल।
सुनैत ओकर अमृत वचन
हमर मोनकेँ डरा रहल छल
मुदा अपन टोलक कुकुर जकाँ
हमरो तामस शेर बनल छल।
मजाल ओकरो की किछु आगू करेए
बस, धमकाबैत हमरा जा रहल छल
हमरो मोन पश्चयातापक आगिमे
किछु-किछु तपि रहल छल।
कोइस रहल छलहुँ अपन पेसाकेँ
छि, इहो कोनो काज अछि
एरे-गेरे आबि कए एहिठाम
नीक-बेजए सुना जाइत अछि।
सभकियोक बुझैत अछि बैमान
हम इमानदारीक दम भरै छी
हमरासँ बढ़ियाँ कोंटाक भिखमंगा
जेकरा हम हँसि कए पाइ दै छी।
फेर दिमागक कोणामे बैसल
आजुक मनुक्खसँ बजै छी
बिनु किछु केने बैमान कहलाइ
तँ किछु कए क किएक नहि पाबै छी।
एहि तर्कमे दम बहुत छल  
जीवैक  आब ढंग इहे अछि  
अपनेलहुँ आब नवका रस्ता
सभ इमानदार बहुत कहैत अछि।
©जगदानन्द झा ‘मनु’  

सोमवार, 26 मई 2014

बाल कविता : होली एलै

होली एलै होली एलै
सबहक मोनमे खुशी जगेलै
रंग बिरंगक सपना अछि अनने
वसन्तक हबा संग झूमि एलै।

सीरक तोसक दूर भगा कए
डारि पातकेँ हरियर केलक
अँगना दौढ़ीमे फूल फुला कए
चाहुदिस हँसैत होली एलै।

धिया किनलनि फुचुक्का
नेना रंग आओर गुलाल
हाट बाजारमे हल्ला भेल छै
सबतरि भरल अबीर लाल गुलाब।

केकरो माथमे अबीर भरल अछि
केकरो मुँह मलल अछि रंग
केकरो हाथ मलपुआ भरल
कियो पिबैत भरि लोटा भंग।
©जगदानन्द झा ‘मनु’

भक्ति गजल


हे भोला लिअ अपन शरणमे
नहि किछु भांगट हमर मरणमे

सबतरि घुरि हम आश हारलौं 
नहि छी समरथ अपन भरणमे

मोनक मित सब दूर परल अछि
किछु नहि भेटल पुण्य हरणमे

जीवन भरि हम मुर्ख बनल छी
भेटल सुख भोलाक वरणमे

पापक बोझसँ थाकि गेल छी
‘मनु’केँ लय लिअ अपन चरणमे

(मात्रा क्रम : २२२२-२१-२१२)
जगदानन्द झा ‘मनु’

शुक्रवार, 23 मई 2014

गरीबी


गरीबी की छैक
सभसँ बड़का ब्याधि
सभसँ बड़का व्यथा
सभसँ बड़का छूत छै
एहि द्वारे तँ भगै छै
गरीबसँ ई सभ्य समाज
किएक तँ
सभसँ बड़का अभिशाप ई छै

गरीब झपटै छैक
भोजक पातपर गिद्ध जकाँ
जखन की मनुक्खकेँ तँ नहि
भगवान बनोलनि गिद्ध जकाँ
कोनो गामक चौक
वा सिमरिया घाट
सगरो भेट जाएत दू चारिटा
गरीब झपटैत गिद्ध जकाँ

आजुक नीति इहे छैक
गरीबकेँ मेटाउ
गरीबी मिट जाएत जल्दी
एहि द्वारे गरीबीसँ भागू
जेना हुए जतएसँ हुए
गरीबी मेटाउ अपन अपन जल्दी
नहि तँ गरीबीकेँ मिटाबै लेल सरकार
गरीब
अर्थात ‘मनु’केँ मिटा देत जल्दी जल्दी।
©जगदानन्द झा ‘मनु’  

गुरुवार, 22 मई 2014

रोजगार बनाम कविता


एकटा मित्र कहलनि हमरासँ
अहाँ कोन दुनियाँमे रहैत छी
दुनियाँ दारीकेँ छोरि कए
कवितामे किएक रमल रहैत छी
दिनमे फोफ कटै छी
आओर राति कए कविता करै छी
हम कहलयैन रहए दिअ
नहि खोट निकालू कविमे
दुनियाँ दारीमे की राखल
जे राखल कविता रचएमे
किएक तँ बेरोजगारीकेँ एहि भीड़मे
हम अपनाकेँ नहि कतौ पा सकलहुँ
रोजगार तकैत तकैत
कतेको रोजा राखि चुकलहुँ
आखीर अपनो दिमागमे
आएल एक बिचार
रोजगार छोरि कए
करल जए कोनो बेपार
मुदा हाय हमर किस्मत
कतए ओ हमर हिस्सामे
ओ तँ रहैत अछि
लाल हरियर रुपैयाक थाकमे
मुदा हम तँ छी
कंगाली केर टकसाल
एहनेमे बीत गेल
हमर जीवनक पेंतीस साल
साल तँ आएल गेल
मुदा पाबि गेल एकटा खाट छी
आब ओहिपर दिनमे फोफ कटै छी
आओर राति कए कविता जड़ै छी
एहि द्वारे हम कहैत छी
नहि ‘मनु’कविकेँ एना बदनाम करू
अहूँ कवित गुण पाबि कए
कविताक धियान धरू
नहि तँ रोजगारकेँ लाइनमे
रोजा केर इन्तजाम करू।
©जगदानन्द झा ‘मनु’