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शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2012

गजल ~~ अमित मिश्र

‎ कोना चमकल रूप सब बुझहS चाहै छै ,
अंग-अंग मे हम्मर गजल रहS चाहै छै
केशक गजरा जानि नै की सब करेतै यै,
मुस्की कए वाण पर इ दिल ढहS चाहै छै ,
पएरक पायल मोनक मोर नचाबै यै ,
डाँरक लचकी कए बिजुरी सहS चाहै छै ,
पाकल आम छी हरियर-पियर सुट मे ,
प्रेमक मथनी सँ प्रेम दही महS चाहै छै ,
राति अमावस मे पुनिम बनि कS एलौँ यै ,
चलि आउ मोर अंगना दिल कहS चाहै छै ,
परी बनि सपना मे सबहक अहाँ आबै छी ,
"अमित " तS सदिखन सुतले रहS चहै छै . . . । ।
अमित मिश्र

सासु माँ नहिं हेथिन ( एकटा पुतोहुक दर्द )

सुनय छलौंह सासु माँ होयत छथि
लेकिन ई की माँ बेटी के बदनाम करतीह
सोचने की छलौह आ भ गेल की
माँ कोना एतेक कठोर हेतीह
माँ के मन में त ममता होयत अछि
मुदा सासु माँ.............................................. ?
किछु हम कहबनि और ओ सुनथिन्ह
किछु ओ कहती और हम सुनब
लेकिन भ गेल उल्टा
जखन पता चलल कि जे ओ हमर कटटर दुश्मन छथि
अनका सॅ हमरा संग लड़य के लेल सलाह लेति छथि
घर में अगि लगेति अछि
ओकरा मिझाईल जाईत अछि
एतह हम पूरा जरईत छी
कियो मिझबय बला नहिं अछि
हमर जिनगी में आगि लागल रहत त
तापय के लेल दुश्मन के बजाबय छथि
घरक बात घर में नहिं राखि के
हुनका सभ सॅ पंचैती करबाबय छथि
आई पता चलल जे सासु कखनो
पुतोहु के लेल माँ नहिं हेतीह
सासु सासुए रहतीह
पुतोहु के बेटी नहिं कहतीह
घर के जे राज रहत से सभ सॅ कहथिन्ह
चारु तरफ सॅ घेरि के पुतोहु के मरय लेल उकसेथिन्ह
आशिक ’राज’ ( मित्र के डायरी सॅ लेल गेल अछि )

बरका बरका बात करइ सब

बरका बरका बात करइ सब ,छोटका के के पुछतयी
सब परेलई छोरी छारी क ,मिथिला ले के सोचतयी
सुन रऊ बुआ सुन गे बुच्ची ,करही किछ विचैर क
हिला दही सौंसे दुनियां के, उखरल खुट्टा गैर क
हिला दही सौंसे दुनियां के.................

अपने पेट भरई के खातिर , नगरी नगरी भटकई छें
मात्री भूमि के काज नै एलें, तहि दुआरे तरसय छें
अप्पन मिथिला राज्य बना ले, मिलतौ छप्पर फाड़ी क
हिला दही सौंसे ..........................

अपने भाय के टांग जं घिचबें, कोना क आगा बढ्बें रऊ
अनका खातिर खैधि खुनई छें, ओही खैधि में खसबें रऊ
कदम बढा तों हाथ मिला क चल ने फेर सम्हारी क
हिला दही सौंसे ............................

मिथला में जं जनम लेलौं आ , काज एकर जं नै एलौं
जीवन सुख पिपासा में, नै जानि कत हम फसी गेलौं
देख इ दुनियां कोना बैसल छौ मिथिला के उजारी क
हिला दही सौंसे ...........................

जनक भूमि सीता के धरती , कनई छौ कोना तरपी तरपी
तू बैसल छे रइ बौरह्बा दोसर लेलकौ संस्कार हरपी
जाग युवा आ जागय बहिना , सोच नै तों उचारी क
हिला दही सौसे .............................

एम्हर उम्हर नै तों तकई बस मिथिला के बात करइ
अप्पन भाषा मैथिलि भाषा जत जायी छें ओतय बजय
एक दिन "आनंद" के पेंबे मिथिला में तो जाय क
हिला दही सौंसे .........................
आनंद झा
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इ रचना आनंद झा द्वारा लिखल गेल अछि यदि अपने एकर कोनो ता अंश या पूरा कविता के उपयोग कराय चाही त बिना हरा स पूछने नै करी :

बुधवार, 15 फ़रवरी 2012

गहीर आँखिक व्यथा (कथा)

आइ-काल्हि शहरी मध्यवर्गक भोरका रूटीन सब ठाम एक्के रहै ए। चाहे ओ छोट शहर हुए वा महानगर। जँ घर मे स्कूल जाइवाला बच्चा आछि तँ भोरे-भोर उठू आ बच्चा केँ तैयारी मे लागि जाउ। एक नजरि घडी दिस रहै छै जे कहीं लेट नै भऽ जाइ। बस स्टाप पर अलगे भीड आ जे अपने सँ स्कूल पहुँचाबै छथि, हुनकर सभक भीड स्कूल गेट पर। कम बेसी सभ शहरक हाल एहने रहै ए। भागलपुर सेहो एहि सब सँ फराक नै छै। भोर मे सात बजे सँ लऽ कऽ साढे आठ बजे तक सौंसे ट्रैफिक जाम आ भीड भाड रहै छै। संजोग सँ हमहुँ एहि भीड भाडक एकटा हिस्सा रहै छी। छोटकी बेटी केँ स्कूल पहुँचेबाक हमरे ड्यूटी रहै ए। अलार्म लगा कऽ भोरे भोर छह बजे उठि जाइ छी। जौं छह सँ आगू सुतल रहलौं, तँ श्रीमतीजीक सुभाषितानि शुरू भऽ जाइ छै जे हे देखियौ आइ स्कूल छोडेलखिन्ह। जखन सात पर घडीक काँटा आबि जाइ ए तखन हबड हबड बेटीक डैन पकडने स्कूल दिस भागै छी आ जँ समय पर गेटक भीतर ढुका देलियै, तँ बुझाइत अछि जे दुनिया जीत लेलौं। इ तँ भेल नित्यक कार्यक्रम। आब किछ विशेष। स्कूलक इलाका मे नित्य भोरे बहुत रास अभिभावकक जुटान हेबाक कारणेँ गपक छोट छोट ढेरी टोल बनल रहै ए। सभक अपन अपन ग्रुप छै आ इ ग्रुप सभक जुटान हेबा लेल ढेरी चाह आ पानक दोकान सभ सेहो। अस्तु, तँ हमरो एकटा ग्रुप बनि गेल अछि, जाहि मे ब्लाक वाला ठाकुरजी, कालेजक प्रोफेसर दासजी, पोस्ट आफिस वाला शर्माजी, कपडा दोकान वाला मोहन सेठ, सर्वे वाला मेहताजी आ आरो किछ गोटे शामिल छथि। हम सब नित्य बच्चा केँ स्कूल छोडलाक बाद ओतुक्का घनश्यामक चाह दोकान पर जुटै छी आ चाहक संग भरि पोख गपक सेहो रसास्वादन करै छी। निजी समस्या सँ लऽ कऽ देशक राजनीति, अमेरिकाक दादागीरी, सचिनक सेनचुरी, आर्थिक समस्या, टूटल रोड, बिजलीक कमी, मँहगीक मारि, कम दरमाहा आदि बहुते विषय सब पर नित्य अंतहीन बहस होइत रहै ए। कहियो काल जँ बेसी लेट भऽ जाइ ए तँ घरनीक तामस सँ भरल फोन हमर सभक सभा भंग कऽ दैत ए। कखनो कऽ मोबाईल फोन पर तामसो होइ ए जे केहन सुन्नर बहस चलै छल आ बहसक असमय मृत्यु भऽ जाइ ए एकटा फोन काल पर। खैर इ भेल हमर भोरका नित्य कार्य। आब हम मूल कथा दिस बढै छी।

घनश्यामक चाह दोकान पर एकटा छोट बच्चा काज करै छल। नाम छलै बिनोद आ हमरा सब लेल ओ छल छोटू। घनश्याम कहै छलै बिनोदबा। इ बिनोद, बिनोदबा वा छोटू जे कहियै दस बरखक हएत। एक दिन बहसक विषय वस्तु छल चाइल्ड लेबर। हम सब अपन चिन्ता प्रकट करै छलौं। ठाकुरजी बजलाह जे यौ ऐ दोकान मे जतय छाह पीबै छी सेहो एकटा बाल मजदूर काज करै ए। एकाएक हमरा सभक धेआन छोटू पर चलि गेल। एतेक दिन सँ इ गप नजरि मे किया नै आबै छल, यैह सोचऽ लगलौं। ठाकुरजी घनश्याम केँ कहलखिन्ह जे बाउ इ गलती काज केने छी अहाँ। पुलिस पकडत आ मोकदमा सेहो हएत। घनश्याम बाजल जे अहाँ जूनि चिन्ता करू। हमर पूरा सेटिंग अछि। लेबर आफिसक बडा बाबू हमर ग्राहक छथि आ कोतवालीक दरोगा सेहो एतय आबै छथि। आइ तक तँ किछ नै कहलाह आ आगू देखल जेतै। हम बजलौं- "से तँ ठीक ए, मुदा इ कहू जे एते छोट बच्चा सँ काज करेनाई अहाँ के नीक लगै ए।" घनश्याम- "जखन एकर बापे केँ नीक लगै छै तखन हमरा की जाइ ए। तीन सय टाका महीनवारी दय छियै।" 

हम धेआन सँ बिनोद केँ देखलौं। ओकर आँखि बड्ड गहीर छलै। कोनो सुखायल सपना जकाँ ओकर आँखि मे काँची सुखा कऽ सटल छलै। हमर हृदय करूणा सँ भरि गेल। हमरा रहल नै गेल। हम ओकरा लग बजेलियै आ पूछलियै- "बउआ कोन गाम घर छौ।" बिनोद बाजल- "हम्मे जगतपुरो केँ छियै।" हम- "बाबूक की नाम ए।" बिनोद- "हमरो बाबूरो नाम जीबछ दास छै।" हम- "पढै नै छी अहाँ? किया काज करै छी?।" बिनोद- "हमरो बाबू कहलकौं जे काम नै करभीं, त घरो मे चूल्ही नै जरथौं। ऐ सँ हम्मे काम पकडी लेलियै।" हम- "हम अहाँक बाबू सँ भेंट करऽ चाहै छी।" बिनोद ताबत हमरा सँ नीक जकाँ गप करऽ लागल छल आ मुस्की दैत कहलक- "हमरो बाबू आज अइथौं। थोडा देर रूकी जा, भेंट होइ जेथौं।" 

हम ओतै बिलमि गेलौं। कनी काल मे कनियाँ फोन केलथि- "आइ आफिस नै जेबाक ए।" हम- "बस आधा घण्टा मे आबै छी।" कनियाँ- "इ महफिल आ चौकडी अहाँ केँ बरबादे कऽ कऽ छोडत। जे फुराइ ए सैह करू।" हम देखलौं जे मण्डलीक सब सदस्यक मोबाईल टुनटुनाईत छल। खैर कनी कालक बाद एकटा दीन हीन व्यक्ति दोकान पर आयल। बिनोद कहलक- "हमरो बाबू आबी गेल्हौं। जे गप करना छौं, करी लए।" हम ओहि व्यक्ति सँ पूछलौं- "अहीं जीबछ दास थिकौं।" ओ बाजल- "जी मालिक। केहनौ खोजी रहलौं छलियै हमरा।" हम- "अहाँ अपन छोट बच्चा सँ मजदूरी कियाक करबै छियै? ओकर पढै लिखैक उमरि छै। आओर सरकारी कानून सेहो बनि गेल अछि जे अहाँ बच्चा सँ मजदूरी नै करा सकै छी।" जीबछ- "अरे मालिक सरकारो की करतै? फाँसी लटकाय देतै? घरो रहतै त भूखले मरी जेतै।" हम- "कतेक बाल बच्चा अछि अहाँक?" जीबछ- "पाँच गो बेटा औरो दू गो बेटी छै।" हम- "ककरो पढबै छियै की नै?" जिबछ बिहुँसैत कहलक- "पहीले खाना पीना पूरा होतै तभें नी पढाई होतै।" हम- "एते जनसंख्या कियाक बढेने छी?" जीबछ- "आब होइ गेलै त की करभौं। हमे भी बच्चा मे मजदूरीये केलियौं मालिक। हमरा और के भाग मे यही लिखलो छौं।" हम- "देखू जे भेल से भेल। बच्चा केँ मजदूरी छोडाउ आ स्कूल मे भर्ती करू। सरकार दुपहरियाक खेनाई सेहो दै छै। नै तँ हम लेबर विभाग मे खबरि कऽ देब। कनी एक बेर बिनोदक आँखिक सपना दिस देखियौ। ओकर की दोख छै? कमे अवस्था मे केहन लागै छै। अहाँक दया नामक वस्तु नै ए की? अहींक बच्चा थीक। सरकारक ढेरी योजना छै। अहाँ लोन लऽ सकै छी। अपन कारोबार कऽ सकै छी। नरेगा मे रोजगारक गारण्टी छै। इंदिरा आवास मे मकान लऽ सकैत छी।" पता नै हम की सब कहैत चलि गेलौं। हमरा चुप भेलाक बाद जीबछ बाजल- "मालिक अपने सब ठीके कहलियै। लेकिन सबे जगहो पर कमीशनो खोजै छै। हमे कहाँ से देभौं कमीशन। ढेरी इनक्वाइरी औरो चिट्ठी पतरी होइ छौं। एतना लिखा पढी औरो दौडा दौडी हमरा से नै सपरथौं।" हम- "ठीक छै, एखन तँ हम जाइ छी, मुदा अहाँ केँ जे कहलौं से करब आ कोनो दिक्कत हएत तँ हमरा सँ भेंट करब। हम अहाँक चिट्ठी बना देब आ जतय कहऽ पडत कहि देब।" फेर हम घर चलि गेलौं। सभा विसर्जित भऽ गेल छल।

दोसर दिन जखन स्कूल गेलौं, तँ फेर सँ घनश्यामक दोकान पर चाहक जुटान भेल। आइ बिनोद दोकान पर नै छल। हम गर्व सँ बाजलौं- "देखलियै बिनोदक मुक्ति भऽ गेल। आब ओकर गहीर आँखिक सपना फेर सँ हरिआ जाएत।" घनश्याम कहलक- "नै सर, बिनोदबाक बाप अहाँ सब सँ डरि गेल आ हमरा ओतय सँ हटा लेलक। कहै छल जे कहीं साहब सब पकडबा नै दैथ, तैं एकरा कोनो दोसर ठाम रखबा दैत छियै।" हम अवाक रहि गेलौं। बिनोदक गहीर आँखिक सपना हमरा नजरिक सामने ठाढ भेल हमरा पर हँसि कऽ कहै छल- "सब सपना पूरा होइ लेल थोडे होई छै। किछ सपनाक अकाल मृत्यु भऽ जाइ छै। हमरो अकाल मृत्यु भऽ गेल अछि। अहाँ व्यर्थ हमरा जीयेबाक प्रयास कऽ रहल छी।" हम हताश भऽ गेलौं। ओहि दिन सँ बिनोद केँ बहुत ताकलियै, मुदा पूरा भागलपुर मे ओ कतौ नै भेंटल। बच्चा सबहक बडा दिनक छुट्टी मे एकटा भाडाक गाडी सँ गाम जाइ छलौं। बाट मे नारायणपुर मे चाह पीबा लेल गाडी रोकलौं, तँ देखै छी जे बिनोद ओहि चाहक दोकान पर काज करैत छल। हम ओकरा दिस बढलौं की ओ जोर सँ कानऽ लागल। दोकानक मालिक हमरा कहलक- "बच्चा केँ किया डरबै छियै?" हम- "नै डरबै नै छियै। हम ओकरा जानै छियै।" दोकानक मालिक- "से तँ हम देखिये रहल छी। चुपचाप चाह पीबू आ अपन गाम दिस जाउ।" ताबत कनियाँ सेहो आबि गेली आ कहऽ लागली- "अहाँ केँ बताह हेबा मे आब कोनो कसरि नै रहि गेल। चलू तँ चुपचाप।" हम देखलौं जे बिनोद कतौ नुका गेल छल अपन गहीर आँखिक सपना समेटने आ हम चुप भऽ गाडी मे बैसि गेलौं।

ओढ़नी लाल

ओढ़नी लाल चुनर के ,
लिपईट लिपईट क अहां साँ,
हम्मर प्यासल नयनन क ,
सदिखन हँसबैत राखैत छल ,
कखनो ऊर्डे वो झकोर हवा संग ,
कखनो समेटी जाई बाहीं में ,
कखनो कान्हा पर ब्याकुल भय ,
ससरैत खसकैत रहेत छल ,
हुनक कान में जाके कखनो किछ
छाती से कखनो सटी जायेत छल ,
हुनक धरकन के गिनी गिनी क ,
ओ उठैत बजरैत रहेएत छल ,
कखनो हुनकर कमरबंद बनी ,
कखनो गाळ क छुबैत छल ,
कखनो पीठ पर जाके बेशरम ,
ससरैत ढलकैत रहेइत छल ,
कखनो ता देखू इ जाजिम बनी क ,
कखनो कोरा में सूती जायेत छल ,
कखनो हुनकर हाथ क इ दुलारे ,
सदिखन हमरा सताबयेत छल ,
एकरा मांथ पर नै रखु अहां ,
अहांक ओढ़नी अछि हम्मर दुश्मन ,
हमरा अहांक बिच आके सदिखन ,
किएक इ बेशरम रहेत छल ,

रूबी झा

कविता - जीवन

जीवन ता अछि ख़ुशी क नाम ,
व्यर्थ में कानी कानी नै बितायेल करू ,

अपनों रहू सदीखन मुस्किअबैत ,
अपना संगे सभ के हंसाएल करू ,,

पथ में देखू जखन कांटा कोनो ,
बिन कहले ओकरा हटावल करू,

मनुख होइए वेहे जे रहे दुःख में ख़ुशी ,
दुश्मनों के मित्र बनावल करू ,

फेर भेटत न शायद मनुखक जीवन ,
ब्यर्थ में न जीबन बितावल करू ,

रूबी झा

गजल


बाहरक शत्रु हारि गेल मुदा मोन एखनहुँ कारी अछि।
नांगरि नहि कटा कऽ मुडी कटबै कऽ हमर बेमारी अछि।

तेल सँ पोसने सींग रखै छी व्यर्थ कोना हम होबय देबै,
खुट्टा अपन गाडब ओतै जतऽ सभक सँझिया बाडी अछि।

पेट भरल अछि तैं खूब भेजा चलै ए, नै तऽ हम थोथ छी,
ढोलक कियो बजाबै, मस्त भेल बाजैत हमर थारी अछि।

जीतबा लेल ढेरी रण बाँचल, एखन कहाँ निचेन हम,
केहनो इ व्यूह होय, टूटबे करतै जँ पूरा तैयारी अछि।

डाह-घृणा केँ अहाँ कात करू, इ अस्त्र शस्त्र नै कमजोरी छै,
आउ सब ओहिठाम जतय रहै "ओम" प्रेम-पुजारी अछि।
सरल वार्णिक बहर वर्ण २२

मिथिलामे जाति-पाति



ई मात्र विडंबना कहु वा कोनो अभिशाप, जे राजनैतिक आजादी भेटलाक ६६ वर्ख बादो हम मिथिलाबासी अपन सोचकेँ जाति-पातिसँ ऊपर नहि  उठा पाबि रहल छी |
मात्र राजनैतिक आजादी ऐ कारणे जे राजनैतिक रूपसँ हम स्वतन्त्र छी परञ्च आर्थिक रूपसँ हम एखनो पराधीन छी | आर्थिक पराधीनता | अर्थात हम अपन इच्छानुसार खर्च नहि कए  सकै छी, मने धनक अभाब | हमरो मोन होइए अपन बच्चाकेँ  कॉन्वेंट स्कूलमे पढ़ाबी मुदा नहि पढ़ा सकै छी,   थिक आर्थिक पराधीनता | हमर मोन होइए नीक मकानमे रही मुदा नहि किन सकैत  छी,   थिक आर्थिक पराधीनता | हमर मोन होइए हमरो लग मोटर साईकिल, कार हुए, हमरो कनियाँ-बच्चा नीक कपड़ा पहिरथि मुदा नहि,   थिक आर्थिक पराधीनता |
स्वाधीनता कए ६६  वर्ख  बादो आर्थिक पराधीनता किएक ?
की हमरा लग बिद्या कम अछि ?
की हम कोनो राजनेता नहि बनेलहुँ ?
की हम प्राकृतिक रूपेण उपेक्षित छी ?
उपरोक्त सभ  बात गलती अछि | विद्यामे हम केकरोसँ कम नहि छी | राजनीतीकेँ  खेती अपने खेतमे होइए | प्राकृतिक कृपा अपन धरती पर पूर्ण रूपेण अछि |
तखन किएक ? किएक हम स्वाधीनता कए ६६ वर्ख  बादो, आर्थिक पराधीनताक जीवन जिबैक लेल बेबस छी |
एखनो बच्चाकेँ  चोकलेट नहि आनि हम कहैत छीयै, दाँत खराप भए  जेतौ | कमी चोकलेटमे नहि, कमी हमर जेबीमे अछि |
आ ई  आर्थिक पराधीनताक एक मात्र कारन अछि, हम मिथिला बासिक सोचब तरीका | आजुक युगमे जहिखन मनुख चान-तारा पर अपन पएर  राखि चूकल अछि, हम मिथिलाबासी एखन धरि  जाति-पातिकेँ  सोचिसँ ऊपर उठै हेतु तैयार नहि छी |
बाभन-सोलकन्हकेँ  नामपर बिबाद | अगरा-पिछराकेँ  नामपर बिबाद | ऊँच-नीचकेँ  नामपर बिबाद |
कोनो काजकेँ  लए  कऽ  आगू  बढ़ू, जेकरा नापशन्द भेल, जाति-पातिकेँ  नामपर बखेड़ा  ठार  कए  दएत | आ ई  कोनो अशिक्षित नहि बहुत पढ़ल-लिखल वर्गोंसँ नहि दूर भए  रहल अछि | शिक्षित माननीयव्यक्ति सभ  चाहे कोनो जातिक हुअए, अपन-अपन जाति कए झंडा लए  कऽ आगू  आबि जाइत छथि |
यदि हम स्वयं व अपन मिथिला समाजकेँ  विकसित व विकासशील देखए चाहै छी तँ  जाति-पातिक झंझटसँ निकलि कए  एक जुट भए आगू  बढ़य परत |
एक संगे चलैमे मतभेद स्वभाबिक छै आ ओकरा दूर केनाइ  निदान्त आबश्यक छै | मुदा ओहि  मतभेदमे जातिकेँ  बिचमे नहि आनि कए  व्यक्तिगत आलोचना, समालोचना करबा चाही  |
की कोनो गोट सफल व्यक्तिकेँ  ओकर जातिक नामसँ जानल जाइ  छैक  ?  नै, तँ  सफलताक सीढ़ीपर चलै लेल जाति-पातिक सहारा किएक |
ई जाति-पातिक रस्ता किछु मुठी भरि राजनेताक चालि छन्हि  | हुनकर बात मानी  तँ  हम सभ  अपन विकास छोरि जाति-पातिमे लड़ैत  रहि आ ओ दुस्त राज करैत हमरा सभकेँ  सोधैत रहत |

आलेख - जगदानन्द झा 'मनु'

गजल@प्रभात राय भट्ट

कतय भेटत एहन प्रेम जे मीत अहाँ देलौं
मित्रताक कर्मपथ पर मोन जीत अहाँ लेलौं


स्वार्थक मीत जग समूचा,मोन मीत नहीं कियो
धन्य सौभाग्य हमर मोन मीत बनी अहाँ एलौं

स्वार्थक मेला में भोगलौं हम वर वर झमेला
हर झमेला में बनिक सहारा मीत अहाँ एलौं

मजधार डूबैत हमर जीवनक जीर्ण नाव
नावक पतवार बनी मलाह मीत अहाँ एलौं

निस्वार्थ भाव अहाँ मित्रताक नाता जोड़ी लेलहुं
हर नाता गोटा सं बड़का रिश्ता मीत अहाँ देलौं

नीरसल जिन्गीक हर क्षण भेल छल उदास
उदास जिन्गीक ठोर पर गीत मीत अहाँ देलौं

संगीतक ध्वनी सन निक लगैय मीतक प्रीत
कृष्ण सुदामाक प्रतिक बनी मीत अहाँ एलौं
...............वर्ण:-१८.....................
रचनाकार:-प्रभात राय भट्ट

मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012

MAITHILI KAVYA: MITHILAKSHAR

MAITHILI KAVYA: MITHILAKSHAR

गजल


मधुर साँझक इ बाट तकैत कहुना कऽ जिनगी बीतैत रहल हमर।
पहिल निन्नक बनि कऽ सपना सदिखन इ आस टा टूटैत रहल हमर।

कछेरक नाव कोनो हमर हिस्सा मे कहाँ रहल कहियो कखनो,
सदिखन इ नाव जिनगीक अपने मँझधार मे डूबैत रहल हमर।

करेज हमर छलै झाँपल बरफ सँ, कियो कहाँ देखलक अंगोरा,
इ बासी रीत दुनियाक बुझि कऽ करेज नहुँ नहुँ सुनगैत रहल हमर।

रहै ए चान आकाश, कखनो उतरल कहाँ आंगन हमर देखू,
जखन देखलक छाहरि, चान मोन तँ ओकरे बूझैत रहल हमर।

अहाँ कहने छलौं जिनगीक निर्दय बाट मे संग रहब हमर यौ,
अहाँक गप हम बिसरलहुँ नहि, मोन रहि रहि ओ छूबैत रहल हमर।
मफाईलुन (ह्रस्व-दीर्घ-दीर्घ-दीर्घ) - ५ बेर प्रत्येक पाँति मे।

प्रेम दिवस

प्रेम दिवस पर देख रहल छी
चहुँदिसि प्रेम अछि पसरल
मिलि रहल सभ छथि प्रेमसॅ
हमहँू प्रेम दिवस पर मोनक बात कहने रही
ओ हँसिके स्वीकार केने छलीह
खुशी के ठेकाना नहिं छल प्रेमसॅ
एखन एहि बात के बस साल भरि भेल
कालिहे ओ हँसि क कहलीह
अहाँ के छोडि़ जा , रहल छी प्रेमसॅ
हम पुछलयिन्ह हमर की होयत ?
ओ कहलीह अहँू दोसर ताकि लिय
एहि प्रेमदिवस पर प्रेमसॅ
प्रेमक ई रुप देखि हम अवाक भ गेलौंह
मुँहसॅ किछु नहिं बहरायल
जे कहितियन्हि प्रेमसॅ
भाई प्रेमक बात जुनि करु
प्रेमक मारल आई धरि मरई छी
आब डर लागय अछि प्रेमसॅ

आशिक ’राज’

रविवार, 12 फ़रवरी 2012

गजल-२१

जरि-जरि झाम बनलहुँ हम
सोना नहि बनि पएलहुँ हम

कतेक अभागल हमर भाग
अपन सोभाग हरेलहुँ हम

अपन जीबन अपने लेलहुँ
किएक लगन लगेलहुँ हम

सुगँधा अहाँ के विरह में देखु
की की जरलाहा बनलहुँ हम

अहाँ विरह के माहुर पिबैत
मरनासन आब भेलहुँ हम

जतेक हमर मनोरथ छल
संगे सारा में ल अनलहुँ हम

मातल प्रेमक जडित आगि में
खकसिआह मनु भेलहुँ हम
***जगदानंद झा 'मनु'

गजल--अमित मिश्र

जीवन मे जौँ नै रहबै कने सामने रहू ,
जा धरि चलै छै साँस हम्मर सामने रहू ,
केहनो हो मौसम फुल गमक नै छोड़ै छै ,
प्रेमक गाछ कए फुल छी गमकौने रहू ,
लोग कतबो दुषित करै छै पर्यावरण ,
सुर्य-चान उगबे करतै समझने रहू ,
जौँ हटि जायब प्रियतम अहाँ सामने सँ ,
हमरा संग सिनेह हारत , जीतौने रहू ,
ऐ वालेंटाइन देखा दियौ प्रेमक तागत ,
नभ सँ भू धरि प्रेम जाम छलकौने रहू
काँट इ जमाना छै सिनेह गुलाबक फुल ,
"अमित " नदी कए दुनू कात सम्हारने रहू . . . । ।
अमित मिश्र

शनिवार, 11 फ़रवरी 2012

MAITHILI KAVYA: KAVITA

MAITHILI KAVYA: KAVITA: " पद-चिन्ह " नै कान तूँ! नै कान तूँ ! एक दिन करबाए नाम तूँ आई कष्ट काटि रहल छें तूँ एक दिन करबाए नाम तूँ नै कान तूँ ! नै कान तूँ...