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मंगलवार, 21 जून 2016

गजल

हम तँ ढोलक छी सगर बाजिते  रहलहुँ 

बात सुनलक नहि कियो पीबिते रहलहुँ

 

प्रेम मोनक बंद  रहिगेल मोनेमे

गप्प कोना ई कहब सोचिते रहलहुँ

 

छल जकर सभ आश छोरि चलि देलक

दर्द लेने मोनमे   जीविते रहलहुँ

 

फाड़ि देखायब करेजा  तँ मानत के

तेँ अपन टूटल हिया जोड़िते  रहलहुँ

 

बंद भेलै ई शराबो करत की ‘मनु’

आँखि पथने गाममे ताकिते रहलहुँ

 

(बहरे कलीब, मात्राक्रम - 2122-2122-1222)

✍🏻 जगदानन्द झा ‘मनु’

 


सोहागिन

हल्द्वानी, हम आ सा । क़ब्रिस्तान पार कय क' हम दुनू पहाड़क उपर चढ़ैत, समतल जगह ताकि पार्ककेँ एकटा वेंचपर बैसि, देहक गर्मीकेँ कम करैक हेतु बर्फमलाइ (आइस्क्रीम) कीन खेनाइ शुरू केलौंहँ ।
दुनू गोटा अप्पन अप्पन आधा बर्फमलाइ खेने होएब कि, सा "जँ हम अहाँक सामने मरि गेलौं तँ हमर सारापर चबूतरा बना देब ।"
मेघ धरि उँच उँच पहाड़, चारू कात प्राकृतिक सौंदर्य, मखमल सन घास, स्वर्गसन वातावरण, बर्फमलाइ केर आनन्दक बिच अचानक एहेन गप्प सुनि, बर्फमलाइ हमर मुँहसँ छूटि हाथमे ठिठैक गेल । कनिक काल सा केर मुँह पढ़ैक असफल प्रयास केलाक बाद; "अवस्य एकटा नीक चबूतरा । जँ हम पहिने मरि गेलौं तँ एतेक व्यवस्था ज़रूर कय जाएब जे एकटा नीक चबू.... "
बिच्चेमे सा हमर मुँहकेँ अप्पन हाथसँ दाबैत, "नीक नहि साधारणे चबूतरा मुदा अहाँक हाथे आ ओहिपर लिखल हुए "सोहागिन सा" ।
@ जगदानन्द झा 'मनु'

प्रेम

गुदड़ी बाजारक भीड़ भाड़सँ निकलैत, एकटा दुकानक आँगा टीवीक आबाज सुनि डेग रूकि गेल । टीवीसँ अबैत ओकर अबाजे टा सुनाइ द' रहल छल । ओकर देह नहि देखा रहल छल मुदा अबाजेसँ ओकरा चिन्हनाइ कतेक आसान छै ।
आइसँ तीस वर्ष पहिने, हमरे संगे संग नमी वर्ग धरि पढ़ै बाली, सुन्दर, चंचल मात्र मूठ्ठी भरि डाँड़ बाली सु.....
"कि प्रेम इहे छैक की मात्र देहक प्रजनन अंगपर एकाधिकार बना कय राखैमे सफल भेनाइ?"
@ जगदानन्द झा 'मनु

बेगरता

दोसर मुँहेेँ करोटिया दय सुतल मकेँ अपना दिस घुमाबैत - "धूर जाउ ! कोना मुँह घूमेने सुतल छी, दस मिनट पहिने अप्पन बेगरता काल बिसरि गेलियै कोना जोँक जकाँ सटल छलौं।"

अगिला जनम

“डाँड़ टूटल जाइए भरि राति सूतलहुँ नहि बड़ तंग करै छी, अगिला जन्ममे अहाँ हिजड़ा होएब जे कोनो आओर मौगीकेँ एना तंग नहि कए सकब।”
“ठीक छै ! अगिला जन्म अगिला जन्ममे देखल जेतै, एहि जन्मक आनन्द तँ लए लिअ। आ अगिला जन्ममे ओहि हिजड़ाक ब्याह जँ अहिँक संगे भए गेलहि तँ ।"
© जगदानन्द झा 'मनु' 

मुँहझौँसा

“गै दैया ! एतेक आँखि किएक फूलल छौ ? लगैए राति भरि पहुना सुतए नहि देलकौ।”
“छोर, मुँह झौँसा किएक नहि सुतए देत, अपने तँ ओ बिछानपर परैत मातर कुम्भकरन जकाँ सुति रहल आ हम भरि राति कोरो गनैत बितेलहुँ।”

एसगर - प्रेम बीहनि कथा

बासोपत्ती बस अड्डा। बाउकेँ दिल्ली जेए बला ट्रेन दरभंगासँ पकरैक छलै । बासोपत्तीसँ दरभंगाक धरिक यात्रा बससँ । बसक इन्तजारमे बाउ एकटा लगेज हाथमे नेने ठाड़ । ततबामे सुधा अफसीयाँत भागि कय आबि बाउ लग ठाड़ होति, टूकुर टूकुर ओकर मुँह तकैत । दुनू आँखिसँ नोर निकलि सुधाकेँ गाल होति गरदनि धरि टघरि गेल ।
बाउ - "तु एतेक कनै किएक छेँ?"
सुधा बाउ केर दुनू हाथ खीच, ओकर हाथपर अपन मुँह रखैत, "हम कहाँ कनि रहल छी।"
ओकरा उदास आ कनैत देखि बाउ दूटा बस छोरि देलकै ।
"हमरो ल' चलू, अहाँ बिनु हम एहिठाम नहि जी सकब । ओहीठाम हम सबकेँ कहबै जे हम अहाँक नोकरानी छी । अहाँक नेनाकेँ खेलाएब, घरमे पोछा लगाएब, बर्तन धोब ।"
ई कथन छल एकटा बिधबा माएक जेकर बेटा दिल्ली बाली संगे ब्याह कय दिल्लीए बसि गेल छल आ माए एसगर गाममे ।
@ जगदानन्द झा 'मनु'

गजल

हारिकेँ बाद जीतो ' अबिते छै 
रातिकेँ बाद सगरो इजोते छै 

दुखक माला जपै छी किए दिन भरि
एहि जगमे घड़ी सुखक बहुते छै

नोर राखू पजारब गजल एहिसँ
किछु पुरनका खड़ेएल रहिते छै

बेंगकेँ जिन्दगी  नै इनारे भरि
भादबक बाढ़िमे जनिते छै

छोरि तकनाइ मुँह  हाथ नम्हर करु
किछु पबै लेल 'मनु' दाम लगिते छै

(मात्रा क्रम ; २१२-२१२-२१२-२२)
जगदानन्द झा 'मनु