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शनिवार, 7 जनवरी 2012

अथ कलियुगी पति चालीसा




दोहा- पति चरण सुख होइत अछि,
     पति चरण दुख होत
     कलियुगी पतिक सामने,
     लज्जित होइत खड्योत।

हे पतिदेव ज्ञान के आगर,
पत्नी अबिते बनला बागर,
छटपट-छटपट ओना करई छईथ,
जेना बलि-प्रदान के छागर।

पति सब माथ पर हाथ दैथ,
जखने केला बियाह,
साढ़े साती शुरू भेलाइन्ह,
जीवन भेलाइन्ह सियाह।

जय जय हो जय जय पतिदेवा,
करता निस दिन पत्नी सेवा,
पत्नी के उपमा देल न्यारी,
चन्द्रमुखी सन लगई छी प्यारी।

पत्नी मे ओ स्वर्ग देखई छईथ,
देवी बुझि-बुझि नमन करई छईथ,
कल जोरि निस दिन विनय करई छईथ,
चारु धाम एके मे पबई छईथ।

पत्नी सेवा मे निरत रहे,
भरि दुनियाँ से ओ विरत रहे,
कनियाँ कनियाँ नित मंत्र जपे,
ई मंत्रक माला हाथ रखे।

सासुर के बैकुंठ बनेता,
सार ससुर संग तास खेलेता,
सारि ले अनता निक सनेश,
सासुर सेवा परम उद्देश्य। 

पत्नी भक्तक बहुत प्रकार,
कियो करैथ प्रेम आ कियो प्रहार,
कियो चापलूस कियो उदार,
नहि अछि हमर बात निराधार।

किछ पत्नी भक्तक बात सुनू,
हुनको गप पर कान धरू,
“ॐ पत्नीयाय नमः” के मंत्र जपु,
संग पत्नी भक्तक भेद सुनू।

फल्लाँ पत्नी के गरिएता,
चिल्लाँ गप दय के सरिएता,
तै सब स जो बात नै बनले,
तहन ते ओ फेर लतियेता।

कियो बजाबैथ हे यइ कनियाँ,
अहाँ ले हम लायब पैजनियाँ,
हीरा जरल गोल नथुनियाँ,
अहाँ छी हमर दिलजनियाँ।

कियो बजाबैथ यइ बौआक माँ,
अहाँ लगई छी चान जकां,
रहइथ निहारईथ साँझ आ भोर,
चान के देखे जेना चकोर।

कियो बजाबैथ लय के नाम,
अहाँ बिना मोर जीवन उदाम,
हे हमर जीवनक चिर-भोर,
अहाँ बिना मोर जीवन थोर।

कियो प्रेम से देलईथ उपनाम,
पम्मी स्वीटी आम लताम,
से कनियाँ मचबे कोहराम,
करे परईन्ह जों घरक काम।

कियो बजाबैथ सुनई छी यइ,
मर कुदई छी किये भरि अँगना,
भरि राति जूनि अहाँ माथा खाऊ,
काल्हिए हम आनि देब कंगना।

कियो बजाबैथ हे गै मौगी,
तोरा सन नहि देखलौ ढोंगी,
डंटा से तोरबौ डरबासि,
आब अगर जों तू केले खटरासि।

भरि दिन परल खाट तोरई छै
हमर माय स काज करबई छै,
भोरे तोरा चाहियौ बेड टी,
भले बेचय परे हमरा कुरता-धोती।

भाई अहाँ के बड़ा जुआरी,
बाप अहाँ के देने छल पारी,
पारी हरदम खाय खेसारी,
अहाँ मुह मे परल सुपारी।

कल जोरि विनती करत तिहारी,
करू अहाँ जूनि एना घेथारी,
आगु पाछु लोग हंसईए,
किए करई छी मारा मारी।

कियो चापलूस कियो मलंग,
कियो गप्पकर कियो दबंग,
ई कनियाँ बरक प्रेम देखि-देखि,
“अमितो”क मून मे उठल तरंग।

पति चालीसा पत्नी गावे,
स्वामी प्यारी नाम कमावे,
पति उपास पत्नी मन भावे,
संतानवती पत्नी कहलावे।

पत्नी मंडली सुइन लिय,
जूनि खाउ हमरा स खार,
ई पढ़ि जों तमसा गेलौ,
निज पति के दु-चारि बेलना मारु।

पत्नी समान देवी नहि दूजा,
निस दिन करू साँझ-भोर पूजा,
संत “अमित” के इहे विचार,
ईहो छईथ कल्पित पत्नी लग लाचार।

दोहा-पत्नी सेवा सब पति करू,
    संत “अमित” करैथ उचार,
    जों हुनकर भृकुटी टेढ़ भेल,
    नहि कालो लग उपचार।

नोट....... साग्रह निवेदन जे अपने सब एही रचना के मात्र हंसी-मजाकक रूप मे लिय, यदि कुनो भी व्यक्ति के भावना आहत होइत अछि, ते हम क्षमाप्रार्थी छी।  

रचनाकार- अमित मोहन झा

ग्राम- भंडारिसम(वाणेश्वरी स्थान), मनीगाछी, दरभंगा, बिहार, भारत।

नोट..... महाशय एवं महाशया से हमर ई विनम्र निवेदन अछि जे हमर कुनो भी रचना व हमर रचना के कुनो भी अंश के प्रकाशित नहि कैल जाय।










   

आब जमाना बदईल गेले।


आब जमाना बदईल गेले यौ,
आब जमाना बदईल गेले।

आब सिस्टर सब sis कहाई छईथ,
भैया दैया नाम झमाई छईथ,                                                                                                                       
बाबूजी ते dad भेला,
बेटी संग ओ क्लबो गेला,
नवयुग के ई रीत निराला,
संस्कार कोसी भसिएला,
छौंरी सबहक टाइट जींस देखि,
छौरा सबटा बहकि गेले,
आब जमाना बदईल गेले यौ,
आब जमाना बदईल गेले।

बुढ़ा-बुढ़ी माँल जायत छईथ,
आइसक्रीम एक संगे खाइ छईथ,
एक दोसर के डाँड हाथ दय,
नैन-मट्ट्क्का सेहो करई छईथ,
रॉक एन राँल के मस्त धुन पर, बुढ्बा
बूढ़ा डांस करे लगले,
बुढ़ा के टनगर डांस देखि,
बुढ्बा पर बुढ़िया छरेप गेलई,
आब जमाना बदईल गेले यौ,
आब जमाना बदईल गेले।
पहिले घोडा चना खाइ छल,
चनों आब सपना भ गेले,
रुखल-सुखल घास-फुस पर,
हड्डी सबटा निकलि गेले,
टीसन जाइ काल बीच राह मे,
घोडा बहुते हकमि गेले,
घोडा लय टमटम के संगे,
जोतला खेत मे गुरकि गेले,
आब जमाना बदईल गेले यौ,
आब जमाना बदईल गेले।

आब गुरुजी “सर” कहाई छईथ,
सर के सर कते बेर फुटले,
गुरु ते गुरे रहि गेला,
चेला सब चीनी भेले,
टास्क बनेने नहि छल मुसरी,
सर के ओकरा डेंग्बय परले,
मुसरी ते मुसरिए छेलखिन,
छनहि क्रुद्ध भय प्रण एक लेलखिन,
सर के साइकिलक चक्का मे,
लाठी ओकरा घुसबे परले,
आब जमाना बदईल गेले यौ,
आब जमाना बदईल गेले।

छौंरियों सब सिगरेट पिबईये,
छौरा सब संग पार्क घूमईये,
बाइक के पाछु मे बैसल,
ब्रेकक लाथे मज़ा मारेये,
एक्कर सब के चालि ने देखु,
बीसों टा बॉयफ्रेंड रखईये,
आब जमाना बदईल गेले यौ,
आब जमाना बदईल गेले।

आइ काल्हिक छौरा के देखियौ,
टीक कटा जुल्फी के रखइये,
पढ़ाई-लिखाई मे साढ़े बाईस,
मोछ मुड़ेने देखियौन ताइस,
गप सुनबई ते भ जायब दंग,
लेकिन सरस्वती छईन्ह मंद,
बैंग्लोरक नामी मंत्री माँल दिस,
“अमित” के सेहो मोन गेलेये,
आब जमाना बदईल गेले यौ,
आब जमाना बदईल गेले।

आब जमाना बदईल गेले यौ,
आब जमाना बदईल गेले।

रचनाकार--अमित मोहन झा
ग्राम- भंडारिसम(वाणेश्वरी स्थान), मनीगाछी, दरभंगा, बिहार, भारत।

नोट..... महाशय एवं महाशया से हमर ई विनम्र निवेदन अछि जे हमर कुनो भी रचना व हमर रचना के कुनो भी अंश के प्रकाशित नहि कैल जाय।








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शुक्रवार, 6 जनवरी 2012

मिथिला स पलायन

खेत-खडीहान उजार भेल सबटा
मिथिला हमर आई बेगार भेल सबटा|

नहि गामक हाट ओ
नहि कुजर्निक हाक ओ
नहि ककाक ठाठ ओ
मिथिलाक रित हेराय गेल सबटा|

नहि बजैत पैजनियाँ
नहि बाबी कए खेलौनियाँ
बाबा कए लाठी हेरायगेल सबटा
मिथिला हमर आई उजार भेल सबटा |

पेटक आइग में
आधुनिकता कए खाई में
बेरोजगारी कए है में
मिथिला हमर आई पलायन भेल सबटा
मिथला हमर आई उजार भेल सबटा |
*** जगदानंद झा 'मनु'

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"विदेह" प्रथम मैथिली पाक्षिक ई-पत्रिका,१५ नवम्बर २०११,में प्रकाशित
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श्रम निष्ठा


2सोचलौ हम एक दिन संसार में सैर करू
अपन कल्पना के लहर पर धीरे - धीरे हेलअ लागु
तखने विचार आयल मोन में कल्पना स उपर उठू
अपने चलइते चलइते धरती पर पैर राखु

जखन धरलौ पग हम पृथ्वी पर
किछु अहसाश भेल अहन
ज़िंदगी के चाइर दिन
और , तयो जीवन कहेन ?

अतए नजइर उठेलौ त पेलौं
कृषक श्रम दान क रहल छल
कानी हाथ रुकइ नै छल
एहन मेहनत करैत छल .

आँइख धँसल छलय भीतर
भूखआयल पेट पिचइक रहल छल
पसीना के कंचन बूंद सँ
तन हुनक चमैक रहल छल .

देख क हुनक इ हालत
एक आघात भेल ऐना मोन पर
जीवन पाललक जग के जे
रक्त देखैत ओकर तन पर

किछु पग और चल्लौ आगा
एगो आलीशान भवन ठार छल
श्रमिक के शोषण कैर कैर क
अपना के गर्वित समइझ रहल छल .

कहलक गर्व स ओ ऐना
इ सब हमर कर्म के फल अछि
कयलक ज़िंदगी भइर श्रम ओ
लेकिन तयो निष्फल अछि .

तखन पुछ्लाऊ हम ओकरा स
सुन तोहर कर्म कहेन छऊ
हंइस क बजल ओ ऐना
सबता धन के आइड़ में छुपेल अछि .

सोचलौ हम धन कहेन अछि
जे सब किछु छुपा लैत अछि
पाप के पुण्य और
पुण्य के पाप बना देत अछि .

सोचइत सोचइत गाम क दिश बढ़ल कदम
कि लोग के कहेन अछि भरम
एक दिन अहिना फेर ओहे दिश पग बैढ़ चलल
जतय कृषक और भवन छल मिलल .

देखलौ ओतय हम -----
कृषक मग्न भ काज क रहल छल
पसीना के पोइछ वो हर जोइत रहल छल
दृष्टि गेल भवन पर त बुझ्लाऊ
कि मात्र एकटा खंडहर ओतय ठार छल .

ओ देख क हमरा
ओकर बात के बुझाय में आयल
कि कर्म के अनुसार
आय तू इ फल पेलें
हमरा मुँह स ओय समय
यइ शब्द निकइल गेल
नय ओझ्रयब इ भ्रम - जाल में
नय त इंसान त अतए छलल गेल .

गजल@प्रभात राय भट्ट

                   गजल
अहां एना नए करू दिल बहकतै हमर
फेर अहां विनु कोना दिल सम्हरतै हमर 

अहांक संगही रहब हम जन्म जन्म तक
पिया अहां विनु कोना दिल धरकतै हमर 

रस भरल अंग अंगमें चढ़ल जोवनके
रसपान विनु कोना दिल चहकतै हमर 

नीसा लागल अछि बलम हमरो मिलनके
अहां विनु कोना प्रेमनीसा उतरतै हमर 

जे नीसा अहांक अधरमें ओ मदिरा में कहाँ
फेर पिने विनु कोना नीसा उतरतै हमर 

पिया पीब लिय पिला दिय जोवन रस जाम
पी विनु ठोरक प्याला कोना छलकतै हमर 
...............वर्ण-१७ ............
रचनाकार:-प्रभात राय भट्ट

गुरुवार, 5 जनवरी 2012

गजल


करेज मे काढल छै अहाँक छवि, नै मेटैत कखनो।
मोन मे बन्न अहाँक प्रेम कियो कोना चोरैत कखनो।

अहाँ खुश रहू यैह छै आब हमर दर्दक इलाज,
इ दर्द फुरसति मे हमर करेज सुनैत कखनो।

असगर बैसल अहाँक यादि मे हम हँसि लैत छी,
हँसीक राज भेंटला सँ हमर मोन बतैत कखनो।

मोन मे बसल अहाँक छवि नै भीजै, तैं नै कानैत छी,
मुदा रोकी कते, अहाँक यादि हमरा कनैत कखनो।

एक बेर कहि दितिये अहाँ हमरे लेल बनल छी,
गीत प्रेमक "ओम"क मोन हँसि गुनगुनैत कखनो।
--------- सरल वार्णिक बहर वर्ण २० ----------

मंगलवार, 3 जनवरी 2012

गजल


आबि गेलै बहुत मस्ती थोड़बे पीबि कऽ।
आब डोलै सगर बस्ती थोड़बे पीबि कऽ।

जे करी, की करत थौआ भेल छै लोकक,
खूब हेतै जबरदस्ती थोड़बे पीबि कऽ।

चोरबा केँ चलल डंटा, साधु बैसै चुप,
हैत आगू मटर-गश्ती थोड़बे पीबि कऽ।

बाजबै जे मुँहक छै, चाहे कहू मातल,
की कहू छै मुँहक सस्ती थोड़बे पीबि कऽ।

आब नेता बनि खजाना लूटबै देशक,
"ओम" केँ की बढल हस्ती थोड़बे पीबि कऽ।
------------- वर्ण १५ ----------------
वर्ण क्रम I U I I U U U I I I U I I U U

चंचल लड़की जेना माँ - अजय ठाकुर (मोहन जी)


मरुआ रोटी पर पोरों साग जँका होय अछी माँ
याद आबे या चौका बासन, जाँरनक चुल्हा जेना माँ
 
चिअरै के आवाज़ में गुंजल राधा मोहन हरी हरी
मुर्गा के आवाज़ सॅ खुलैतं घर कुंडा जेना माँ
 
कनियाँ,बेटी,बहिन,परोशी थोरबे-थोरबे सबमे छथि
दिन भैर जॉत् में चलैत मुशैर होय जेना माँ
 
बैँट क चेहरा , माथा आँखी नै जनलो कते गले
फॅटल पुरान गुदरी में एक चंचल लड़की जेना माँ

सोमवार, 2 जनवरी 2012

गजल

केहन मीठ विरह मे झोरि गेलौं अहाँ हमरा।
नोरक झोरविकट छै बोरि गेलौं अहाँ हमरा।

नीक कहै छल सभ ठाँ, फूल भेंटै छलै सगरो,
आब कहै हम वहशी, घोरि गेलौं अहाँ हमरा।

लोक बजै छल हमरा प्रेम मे जोडि देल अहाँ,
टूटल टाट बनल छी, तोडि गेलौं अहाँ हमरा।

देल करेज अपन सौंसे अहाँ केर हाथ प्रिये,
सौंस करेजक टुकडी छोडि गेलौं अहाँ हमरा।

"ओम"क मोन बुझलकै नै, बनेलौं अहाँ घिरनी,
नाच करी बनि घिरनी, गोडि गेलौं अहाँ हमरा।
------------------ वर्ण १८ ----------------

गज़ल - अजय ठाकुर (मोहन जी)


मुश्किल स भरल या रस्ता देखु, 
समय स दुश्मनी के अशर देखु
 
हुनका याद में राईत भैर जगलो हम,
सुतल छथि ओ घर में बेखबर देखु
 
दर्द पलक के निचा उभैर रहलैन, 
नदी में उठल कने लहर त देखु
 
के जाने छथि कैल रही या नै रही,
आए छी त कने हम्हरो दिश देखु
 
होश के बात करेत छलो उम्र भरी, 
"मोहन जी" बेहोश छथि एक नैजैर देखु
गजल
हम तं कागज कलमक संयोग करबैत छी
कागज पैर शब्दक गर्भधारण करबैत छी 

कागज सियाहिक स्पर्श ले मुह बयेने रहैय
हम तं कागजक भाव बुझी किछु लिखदैत छी 

कागज जखन प्रसव पीड़ा सं छटपटाएत
तखन हम मोनक भाव सृजना करबैत छी 

मोनक उद्द्वेग कोरा कागज पैर उतरैय
लोग कहैय अहां बड निक रचना रचैत छी 

हम तं स्वर लय मात्र छन्द इ किछु नहीं जानी
लोग कहैय अहां बड निक गीत लिखैत छी 

हम तं वर्ण रदीफ़ काफिया किछु नै जनैत छी
लोग कहैय अहां बड निक गजल लिखैत छी 
.........................वर्ण:-१८........................
रचनाकार:-प्रभात राय भट्ट