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शनिवार, 6 अप्रैल 2013

गजल


घोड़ा जखन कोनो भऽ नाँगड़ जाइ छै
कहि ओकरा मालिक झटसँ दै बाइ छै

माए बनल फसरी तँ बाबू बोझ छथि
नव लोक सभकेँ लेल सभटा पाइ छै

घर सेबने बैसल मरदबा छै किए 
चिन्हैत सभ कनियाँक नामसँ आइ छै

कानूनकेँ रखने बुझू ताकपर जे
बाजार भरिमे ओ कहाइत भाइ छै

खाए कए मौसी हजारो मूषरी
बनि बैसलै कोना कऽ बड़की दाइ छै

पोसाकमे नेताक जिनगी भरि रहल
जीतैत मातर देशकेँ ‘मनु’ खाइ छै

(बहरे रजज, मात्रा क्रम २२१२ तीन तीन बेर) 
जगदानन्द झा ‘मनु’                

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