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बुधवार, 7 अगस्त 2013

माँछक महिमा

साँझक छह बजे पशीनासँ तरबतर सात कोस साईकिल चला कए अ०बाबू अपन बेटीक ओहिठाम पहुँचला हुनक साईकिल केर घंटीक अबाज सुनि नाना-नाना करैत हुनक सात बर्खक नैत हुनका लग दौरल आएल अपन पोताक किलोल सुनि अ०बाबूक समधि सेहो आँगनसँ निकैल दलानपर एला दुनू समधि आमने सामने-
“नमस्कार समधि।”
“नमस्कार नमस्कार सभ कुशल मंगल ने।”
“हाँ हाँ सभ कुशल मंगल।”
अपन नैतकेँ झोरा दैत, “लिअ बौआ आँगनमे राखि आबू, माँछ छैक।”
“अहुँ समधि ई की सभ करए लगलहुँ।”
“एहिमे करब की भेलै, आबै काल नहैरमे मराइत देखलिऐ हिलसगर देख मोन भए गेल, धिया-पुता लेल लए लेलहुँ।”   
“मुदा समधि अपने तँ बैसनब छी तहन धियापुताक सिनेह खातीर एतेक कष्ट।”
“एहिमे कष्टक कोन गप्प, हम नहि खाए छी एकर माने ई नहि ने जे ई खराप छै। हम नहि खाए छी अर्थात तियाग केने छी, जे खाए छथि हुनकर नीक बेजएक धियान तँ रखहे परत। ओनाहितो अपन मिथिलाक माँछक महिमासँ के अनभिक छथि।”  

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